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( ३०१ ) भोजन करते होने से उनका उल्लेख तप के प्रत्याख्यान में किया जाता है, और दो उपवास को षष्ट भक्त प्रत्याख्यान चार उपवास को दश भक्त, पांच उपवास को द्वादश इत्यादि संज्ञायें प्राप्त होती है । यावत् सोलह उपवास को चतुस्त्रिशत् भक्त कहा जाता है। इसी प्रकार सर्वत्र उपवासों के दो दो भक्त और पूर्व उत्तर दिन का एक भक्त छोड़ा जाने के कारण उक्त सर्व संज्ञायें बनती है। ___ उपयुक्त रत्नावली का विधान परिभाषामय होने के कारण दुर्बोध होने से उसी वस्तु को परिभाषाओं से मुक्त करके सुगमता के निमित्त दुबारा लिखते हैं।
रत्नावली तप करने वाला श्रमण एक उपवास और पारणा, दो उपवास-पारणा, तीन उपवास-पारणा करके दो दो उपवास और पारणा करता हुआ, चौबीस दिन में सोलह उपवास और आठ पारणा करेगा। इस के बाद फिर एक उपवास और पारणा, दो उपवास और पारणा ऐसे तप में एक एक दिन की वृद्धि करता हुआ सोलह उपवास और पारणा करेगा। इसके बाद फिर वह चौंतीस दो दो उपवास और पारणा करता चला जायगा । फिर सोलह उपवास और पारणा, पन्द्रह उपवास-पारणा, ऐसे एक एक उपवास घटाता हुआ एक उपवास और पारणा करेगा । इस के बाद पाठ दो दो उपवास और पारणे कर तोन उपवास और पारणा, दो उपवास पारणा, और एक उपवास तथा पारणा करके रत्नावली तप की प्रथम परिपाटी को पूरा करेगा। ऐसे ही दूसरी तीसरी और चौथी परिपाटी में भो तपस्या करेगा, केवल पारणा के दिन प्रथम परिपाटी में इच्छित आहार लेगा, दूसरी परिपाटी में घृत दूध आदि को छोड़ कर सामान्य आहार
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