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________________ ( २८८ ) करना आदि कार्य जो "शृङ्गनादित" कहलाते हैं, उन कार्यों के उपस्थित होने पर राजा के व्यवहार को असत्य जानता हुआ इस परिषद् का नेता कायदा शास्त्र से उत्तर देता, और राजा को निरुत्तर करके कहता, अगर हमारे पक्ष वालों का कोई अपराध है तो उन्हें हम दण्ड देंगे। न्यायानुसार दीक्षित को ऐसा दण्ड नहीं दिया जाता, जैसा कि आप देना चाहते हैं। ॥३८८-३८६-३६० । राहसिकी परिषद् श्रमण तथा श्रमणियों के दोषों का उद्धार करने के लिये प्रायश्चित्त देने का काम करती है। यह परिषद् 'चतुष्कर्णा' 'षटकर्णा' अथवा 'अष्टक' होती है। ॥३६१॥ ___ जहां श्रमण प्रायश्चित्त लेने वाला हो, वहां वह आचार्य के पास एकान्त में जाकर विधिपूर्वक अपने अतिचारों-व्रत में लगे हुए दोषों को प्रकट करता है, और प्राचार्य उसको शुद्धि योग्य प्रायश्चित्त देते हैं। यह 'चतुष्का ' राहसिकी परिषद् कहलाती है। जहां प्रायश्चित्त लेने वाली श्रमणी होती है, वह अपने साथ एक दूसरी वृद्ध श्रमणी को लेकर स्थविर आचार्य के पास जाती है और अपने दोषों को प्रकट करके आचार्य से प्रायश्चित्त लेती है । 'षट्कर्णा' राहसिको परिषद् कहलाती है। जहां श्रमणी द्वितीय के साथ प्रायश्चित्त लेने को आचार्य के पास जातो है, और आचार्य तरुण होने से अपने पास एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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