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________________ ( २=६ ) चितहं ववहरं माणं, सत्थेण वियाणतो निहो डेइ । अहं सपक्ख दण्डो, न चेरिसो दिखिए दंडो || ३६० || सल्ल द्धरणे समणस्सं, चाउकरणा रहस्सिया परिसा । अज्जाणं चउकरणा छक्करणा करणा वा ॥ ३६१ ॥ अर्थः- पहली परिषद् का नाम " सूत्रकृत पूरान्तिका " है । इस परिषद् में आवश्यक सूत्र से लेकर द्वितीयाङ्ग सूत्र कृतान्त तक पढ़े हुए साधु बैठते और अपना अपना पाठ्य सूत्र पढ़ते, तथा उस पर चर्चा समालोचना करते । इस परिषद् में उक्त योग्यता वाला कोई भी श्रमण पढ़ सकता था । द्वितीय परिषद् का नाम "छत्रान्तिका है । इस परिषद् में दशाश्रुत स्कन्ध तथा उसके ऊपर के सूत्रों के अभ्यासी श्रमण बैठते तथा शास्त्र विषयक ऊहापोह करते, परन्तु इस परिषद् में अपरिणामी तथा अतिपरिणामी श्रमण नहीं बैठ सकते थे, भले ही वे उक्त योग्यता वाले क्यों न हो, इसमें उन्हें बैठने का अधिकार नहीं मिलता था । ||३८४|| तीसरी परिषद् "बुद्धिमती" थी। इस परिषद में बैठने वाले श्रमण लौकिक । वैदिक और सामाजिक शास्त्रों में प्रवीण होते और जैन जैनेतर धार्मिक तथा दार्शनिक शास्त्रों में कुशल होते थे । इस कारण यह परिषद् स्वसमय विशारदा होने से बुद्धिमती कहलाती थी । ||३८५|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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