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( २८३ ) से यह निश्चित होता है कि वे स्वयं ग्राम के बाहर इक्षुबाट आदि स्थानों में ठहरते थे। वास्तव में जैन श्रमणों का वसतिवास विक्रम की चतुर्थी शताब्दी से होने लगा था, और पञ्चमी शताब्दी में सार्वत्रिक वसतिवास हो गया था ।
आर्य रक्षित जी के समय में जैन श्रमण बहुधा नग्न भाग ढांकने के लिये कटि के अग्रभाग में कपड़े का एक टुकडा लटकाते थे, जो "अग्रावतार" इस नाम से व्यवहृत होता था । इस बात के समर्थन में हम मथुरा के जैन स्तूप में से निकली हुई आर्य कृष्ण की प्रस्तर मूर्ति का उदाहरण दे सकते हैं। उक्त मूर्ति कुशाण राजा कनिष्क के समय की बनी हुई है। जो समय विक्रमीय द्वितीय सदी के अन्त में पड़ता है।
जैन श्रमणों को झोली में भिक्षा लाने का व्यवहार भी सम्भवतः आर्य रक्षित जी के समय में ही प्रचलित हुआ हो तो
आश्चर्य नहीं, क्योंकि उनके समय में अथवा तो कुछ बाद में बनी हुई आवश्यक नियुक्ति आदि में वर्णित स्थविर कल्पिक श्रमण की उपधि में मात्रक तथा पात्र निर्योग का निरूपण मिलता है। यह सब होते हुये भी इतना तो निश्चित है, कि उनके समय तक श्रमणों का श्रुताध्ययन प्राचीन शैली से होता था ।
प्राचीन काल में जैन श्रमणों को किस क्रम से श्रुताध्ययन कराया जाता था, और किस सूत्र के पढ़ने के लिये कितने वर्ष . का चारित्र पर्याय होना आवश्यक माना जाता था, इसका निरूपण
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