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________________ ( २८२ ) अर्थ - कालिक श्रुत ( एकादशाङ्ग ) ऋषिभाषित । उत्तराध्य. यनादि ) सूर्यप्रज्ञप्ति ( उपलक्षण से चन्द्र प्रज्ञप्ति भी ) और सम्पूर्ण दृष्टिवाद इनका क्रमशः चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयं ग, काला नुयोग, तथा द्रव्यानुयोग, में समावेश होता है । आवश्यक नियुक्ति का विशेष रूप से कहते हैं । जं च महाकप्प सुयं जाणिय से सागि छेय सुत्ताणि । चरण करणानुयोगोति कालियत्थे उवगयाः ॥७७७॥ "आ० नि०" अर्थ : --- महाकल्प सूत्र और शेष छेद सूत्र ( कल्प, व्यवहार निशीथ, आदि) ये सब चरण करणानुयोग होने से कालिक श्रुत में समाविष्ट हो जाते हैं । आर्य रक्षितजी ने अनुयोगों को ही विभक्त नहीं किया. बल्कि दूसरे भी अनेक परिवर्त्तन किये हैं । जैसे पहले प्रत्येक श्रमण अपने पास एक पात्र रखता था, परन्तु आर्य रक्षित जी ने मात्रक नामक एक दूसरा भी पात्र रखने की आज्ञा दी । आर्य रक्षितजी द्वारा श्रमणों को ग्रामों में निवास करने की आज्ञा देने का भी एक प्राचीन गाथा में सूचन मिलता है, परन्तु उस गाथा का आधार-ग्रन्थ न होने के कारण उस पर विश्वास करना उचित नहीं है, क्योंकि आर्य रक्षित जी के चरित्र १ - इस अनुयोग में ज्योतिष विषयक गणित मुख्य होने के कारण इसका नाम कहीं कहीं गणितानुयोग तथा संख्यानुयोग भी लिखा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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