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बदलने का जिस प्रकार गणस्थविर को अधिकार होता था, उसी प्रकार गणस्थविरों के दिये हुए फैसलों को बदलने का अधिकार संघ स्थविर को था । यद्यपि संघ स्थविर किसी भी गण के प्रान्तरिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते थे, फिर भी किनी आचार्य के विरुद्ध दूसरा कोई आचार्य संघ स्थविर के यहां अपील करता तो उसे वे सुनते और योग्य निर्णय देते । इसके अतिरिक्त कोई भी प्राचार्य जैन शासन के विरुद्ध प्ररूपणा करता तो संघस्थविर उसको रोकने की आज्ञा देते थे। यदि संघ स्थविर की आज्ञा को मानकर प्ररूपक आचार्य अपनी अयोग्य प्रवृत्ति से निवृत्त हो जाता तब तो मामला वहीं समाप्त हो जाता । परन्तु यदि कोई ऐसे भी
आचार्य होते जो अपने दुराग्रह से पीछे नहीं हटते, तब संघ स्थविर संघ समवाय बुलाने को उद्घोषित करते । जिस पर देश देश से तमाम आचार्य अथवा उनके प्रतिनिधि नियत स्थान पर एकत्र होते, ऐसे संघ सम्मेलन को शास्त्रकारों ने "संघ समवसरण" इस नाम से उल्लिखित किया है। संघ समवसरण में आचार्य अथवा अन्य साधु जिसके विरुद्ध वह समवसरण किया जाता, उन्हें बुलाया जाता था, और तमाम आचार्यों के सामने विवाद विषयक मामले की जांच की जाती थी, अगर उस समय अपराधी अपना अपराध स्वीकार कर उचित दण्ड लेने को तैयार हो जाता तो संघ स्थविर उसको योग्य दण्ड प्रायश्चित देकर मामले को वहीं खत्म कर देते । परन्तु किन्हीं भी कारणों से अपराधी संघ समवसरण में आने से ही हिचकिचाता तो गीतार्थ श्रमण उसको मधुर वचनों से समझाते और संघ की न्याय प्रियता तथा
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