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________________ श्रावकों की भावना बढ़े, उस प्रकार उनके परिणाम की धारा पूरी होने के पहले ही साधु कहे, बस रक्खो। बहुत हो गया। इस प्रकार यतना पूर्वक लाया हुआ विकृत्यात्मक भोजन वृद्ध बाल और कमजोर साधुओं को दिया जाता है, युवान साधुओं का नहीं दिया जाता, परन्तु कारण विशेष की उपस्थिति में उनको भी दिया जाता है । इस प्रकार प्रशस्त विकृति ग्रहण की जाती है। विकृति ग्रहण और उसके विभाजन के सम्बन्ध में निशीथ चूर्णी में नीचे मुजब व्यवस्था दी गई हैतथा संचइयममंचयं नाउण मसंचयं तु गिरोहति । संचइयं पुण कज्जे निबन्धे चेव संचइमं ॥१॥ घयगुलमोदका दिजे, अविणासी ते संचइया । खीर दहि माइया, विण्णासी जेते असंचइया । अहवन सड्ढा विभवे कालं भावं च बाल बुड्ढायो । नामो निरन्तर गहणं अछिन्नभावेय ठायंति ॥२॥ सावयाण सद्ध नाउण विउलं च विहवं नाउ कालं च दुभिक्खा इयं भावं च बाल बुहागय अप्पायणहा एव माइकज्जे नाउण निरन्तरं गेएहति । जावय तस्स दायगस्स भावो नवोछिज्जई, ताव दिजमारणं वारयति । (नि० चू० उ० ४ ) __ अर्थ-विकृति दो प्रकार की होती है-१ संचयिक, २ असंचयिक, इन दो प्रकारों को समझ कर असंचयिक को ग्रहण करते हैं, और संचयिक को कार्य उपस्थित होने पर ग्रहण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003119
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1961
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size19 MB
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