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में बांध लेते थे । इस प्रकार का वेष विक्रम की प्रथम शताब्दी तक चला आया होगा, ऐसा मथुरा के जैन स्तूप में से निकली हुई आचार्य कन्ह (कृष्ण) की प्रस्तर मूर्ति से ज्ञात होता है, वह मूर्ति अमावतार युक्त वाकी सारा शरीर खुला है । इसके अतिरिक्त शीतकाल में एक दो अथवा तीन ओढने योग्य वस्त्र भी रखे जाते थे । जो श्रमण एक से निर्वाह कर सकता था, वह एक सूती पछेडी रखता था । जो एक से निर्वाह नहीं कर सकता था, वह दूसरा ऊनी कम्बल रखता था, और इन दो से भी जो अपने शरीर का शीतकाल में रक्षण नहीं कर पाता, वह दो सूती ओढने योग्य Tea और एक कम्बल इन तीन वस्त्रों को रख सकता था, और शीत काल के बीतने पर उन वस्त्रों को वे प्रायः त्याग देते थे । साधु के वेष विषयक यह स्थिति विक्रम की प्रथम शताब्दी तक चलती रही, परन्तु बाद में धीरे धीरे जैन श्रमणों का निवास ग्राम नगरों में होने लगा और उनके मौलिक वेष ने भी पलटा खाया | प्रथम उन प्रत्येक श्रमणों के पास एक एक पात्र रहता था, शीतकालोपयोगी वस्त्र पास में रखने पर भी उष्ण तथा वर्षाऋतु में उन वस्त्रों से वे शरीर को ढकते नहीं थे । विहार में वे कन्धे पर रहते रात को वे घास की पथारी पर सोते थे, परन्तु ग्रामवास होने और गृहस्थों का संसर्ग बढ़ने पर उनके उपकरणों में अनेक गुनी वृद्धि हो गई । पात्र जो पहिले प्रत्येक व्यक्ति के पास एक ही रहता था, अब एक मात्रक के नाम से अन्य पात्र भी आचार्य आर्य रक्षित सूरिजी ने बहा दिया, झोली में पात्र रख कर भिक्षा लाने की प्रथा प्रचलित हुई और इस कारण पात्रक सम्बन्धी उपकरणों
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