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शुभ परिणाम वाले मनुष्यों के साथ रहना चाहिए, जिससे कि उसके चारित्र की हानि न हो ।।६।।
जैन श्रमण को अपने से अधिक गुणवान् अथवा समान गुणवान् योग्य सहायक न मिले तो पापों से दूर रहता और काम विषयों में आसक्त न होता हुआ वह अकेला भी विचरे ॥१०॥
संवच्छ वावि परं पमाणं वीनं च वासं न तहिं वसिज्जा। मुत्तम्स मग्गेण चरिन्ज भिक्खू सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ११
अर्थ-जिस क्षेत्र में वर्षा चातुर्मास बिताया हो तथा जिस क्षेत्र में मास कल्प किया हो उसी क्षेत्र में भिक्षु को दूसरा वर्षा चातुर्मास तथा दूसरा मास कल्प नहीं करना चाहिए, यदि खास कारण से वहां रहना पड़े तो स्थानादि परिवर्तन करके सूत्र के आदेशानुसार रहे ॥११॥
जैन श्रमण की उपधि जिन काल में तथा पूर्व घरों के समय में जैन साधु का वैष जैसा होता था वैसा आज नहीं रहा । उस काल में दीक्षा के समय रजो-हरण मुखवत्रिका, और चोलपट्टक । कटिपट्टक ) ये उपकरण दिये जाते थे, और इनमें से भी कटिपट्टक हर समय बंधा नहीं रहता था, जब कोई उनके स्थान पर गृहस्थ आता तब चोलपट्टक बांध लिया जाता था, बाकी ननभाग ढकने के लिये अगले भाग में एक वस्त्र-खण्ड बांध लिया जाता था, जिसको अग्रावतार कहते थे। भिक्षा के लिये वस्ती में जाते समय भी चोलपट्टक कटि-भाग
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