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दीका-तथा आत्मानं जनेभ्यः पिण्डपातित्वेन भावयति ततो भिक्षा परिभ्रमणेन जीवति अथावमौदर्यदोषतः परिपूर्णो न भवति, ततो दानशालायां भिक्षुकादिभिः सह पंक्त्यां समुपविशति, ततः परिपाट्या परिवेपणे जाते सति-"अपत्ते इति' अत्र प्राकृतत्वाद यकार लोपः । अयं पात्रे तद् गृहीत्वा अन्यत्र विविक्त प्रदेशे समुदिशति । अथान्यत्र गत्वा समुद्देशकरणे तेषां काचित शङ्का सम्भाव्यते । ततो भिक्षुकादिभिः एव सह पंक्त्योपविष्टः सन् समुद्दिशति । तत्र यदि सचित्त कन्दादिपुद्गलं वा मांसापरपर्यायं परिवेषकः परिवेषयति । तदा ममेदमकारकं वैद्यन प्रतिषिद्धमिति बढ़ता तेषां कन्दादीनां पुद्गलस्य प्रतिषेधः कर्तव्यः । ५० १२१
अह पुण रूसेज्जा ही तो घेत्तु विगिंचए जहा विहिणा। एवं तु तहिं जयणं कुज्जा ही कारणागाहे ।। सेवउ मा व वयाणं, अड्यारं तहवि देति से मूलम् । विगडा सव जल-मज्जेउ, कहं तु नावा न वोडेज्जा ।।
अर्थ---महाव्रतों में दोष लगाये या न लगाये, परन्तु उक्त रीति से बौद्ध भिक्षुओं के साथ उनका वेष धारण कर उनके साथ फिरने वाले जैन भिक्षु को जब वह वापस अपने गुरु के पास आये तब मूल से नई उपस्थापना प्रदान करके समुदाय में लेना, चाहिये क्योंकि प्रकट छिद्रवाली नौका बैठने वालों को जल में डुषा देती है। इसी तरह श्रमण धर्म के विपरीत आचरण करने वाले जैन श्रमण को कड़ा दण्ड दिये बिना मर्यादा नष्ट हो जाती है।
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