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( १३५ ) पाद टीका में दिया जा चुका है । वृहदारण्योपनिषद्कार ने तो वनस्पति को पुरुष का रूप देकर उसके प्रत्येक अवयव का वर्णन क दिया है जो नीचे दिया जाता है
यथावृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा । तस्य लोमानि पर्णानि, त्वगस्योत्पाटिका बहिः ॥ वच एवास्य रुधिरं, प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः । तस्मात्त णात्तदा प्रेति, रसो वृक्षादिवाहतात् ।। मांसान्यस्य शकराणि, किनाटं स्त्रावतत्स्थिरम् । अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा मज्जोपमाकृता । यद् वृक्षो वृकणो रोहति मूलानवतरः पुनः ।
( बृहदारण्योपनिषद् ) अर्थ-जैसा पुरुष है वैसा ही सचमुच वनस्पत्यात्मक वृक्षपुरुष है। वनस्पति पुरुष के पत्र उस के रोम हैं । और बाहर भाग में दिखने वाली वक्कल इसकी त्वचा है । वक्कल के उखडने से इसमें से जो रस स्राव होता है वह वनस्पति पुरुष का रुधिर है । और वृक्ष पर प्रहार देने से जिस प्रकार रस स्राव होता है, वैसे ही इस के प्ररोह में से रस स्रवता है। इसमें रहे हुए सार भाग के टुकड़े इसका मांस है। और इसमें से निकला हुआ ठोस स्राव जो किनाट कहलाता है इसका मेदो धातु है। वनस्पति के अन्दर की लकडी इसकी अस्थियां हैं। और इसके बीजों तथा लकड़ी में से निकलने वाला स्नेह इसकी मज्जा है । यह वृक्ष रूपी धनद पुरुष मूल से नया नया उत्पन्न होता है।
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