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कोशकारों ने अपने कोशों में "पलमुन्मानमांसयोः " इस प्रकार अनेकार्थ में लिख दिया। मांस रुधिर के जैसा रंगदार तथा चमकदार होता है और रुधिर से ही बनता है, इस कारण से लोगों ने इसके रक्तस्तेज तथा रक्तोभव, दो नाम गढ़ दिये । कीन यह शब्द विदेशी है, इसका अर्थ होता है मनुष्य के शरीर का भाग, और जो मानव पीछे से किसी की बुराइयां करते हैं वे उस भाषा में कीनाखोर कहलाते हैं । संस्कृत ग्रन्थकार पीछे से चुगलीखोरी करने वालों को पृष्ठमांस भक्षी कहते हैं, इस प्रकार कीन शब्द धीरे धीरे संस्कृत में प्रविष्ट होकर मांस का पर्याय बन गया है, और कीन का वाच्यार्थ मांस हो जाने के बाद लेखकों "नातीति कीनाशः " अर्थात् मांस खाने वाला इस व्युत्पत्ति से यमराज को भी कीनाश बना दिया | जबकि वेदकाल में कीनाश का अर्थ कर्षक होता था। मांस से मेदो धातु की उत्पत्ति होने के कारण लेखकों ने मेदस्कर यह नाम भी प्रचलित कर दिया है ।
अभिधान चिन्तामणिगत नामों के अतिरिक्त " कल्पद्र म" कोश में नीचे के नाम अधिक बढ़े हैं | -
मारद, कीर, लेपन, जंगल, जांगल, वासिष्ठ, घस | मारद का अर्थ है विषय वासना बढ़ाने वाला । कीर यह अप्रसिद्ध नाम है, हिंसार्थक कृ धातु से बना हुआ प्रतीत होता है । लेपन यह नाम इसकी चिकनाहट के कारण गढ़ दिया गया है । जंगल तथा जांगल में केवल शब्द भेद है, ये दोनों नाम देशीय मालूम
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