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बसिष्ठ के निमित्त किये गये मधुपर्क में कपिला वछिया के मारने की बात कही है।
श्रीयुत कौशाम्बी का उक्त कथन उनके नाटक विषयक अज्ञान को सूचित करता है । भव भूति अपने समयका नाटक नहीं लिख रहा है, किन्तु श्रीरामचन्द्र के समय त्रेता युग गत प्रसंगों को लिख रहा है। जिस समय का अभिनय हो उस समय की भाषा, भूषा वेष, अलंकार, रीति, रश्म, बताये विना नाटककार अपने कार्य में कभी सफल नहीं हो सकता, भूतकालीन पात्रों को वर्तमान काल में तादृश रूप में खड़ा करने से ही ऐतिहासिक नाटकों का खरा आनन्द और पूर्व कालीन इतिहास का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। यदि भवभूति अपनी कृति में वरिंगत पात्रों
और रोति रश्मों को पूर्व कालीन रंग में न रंग अपने वर्तमान समय के रंग में रंगते और अपनी कृति को नाटक का नाम देते तो नाट्यकारों में वे अपयश के भागी बनते । इससे सप्तमी सदी में ब्राह्मणों में गो मांस भक्षण का रिवाज बताने वाला अध्यापक कौशाम्बी का कथन विद्वानों की दृष्टि में हास्यास्पद बन जाता है ।
याज्ञवल्क्य स्मृति का प्रमाण याज्ञवल्क्यकृत शतपथ ब्राह्मण गत गो मांस भक्षण विषयक एक उल्लेख से अध्यापक श्रीधर्मानन्द ने ब्राह्मण जाति पर गो मांस भक्षण का जो निराधार आरोप लगाया है, उसका संक्षिप्त उत्तर उपर के विवरण से मिल जाता है।
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