________________
'अग्न्याध्येयमग्निहोत्रं, पौर्णमास्यमावास्ययोः । नवेष्टिश्चातुर्मास्यानि, पशुबन्धोऽत्रसप्तमः ॥
इत्येते हविर्यज्ञ: अर्थ--अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, पौर्णमास्यमावास्या को किये जाने वाले यज्ञ, नया धान्य आने पर किया जाने वाला यज्ञ तीनों चातुर्मास्यों सम्बन्धी किया जाने वाला यज्ञ, और सातवां पशुबन्ध यज्ञ ये सात हविर्य कहलाते हैं ।
बौधायन गृह्यसूत्र में यज्ञ इक्कीस प्रकार के बताये गये हैं'एक-विंशतिसंस्थोयज्ञः ऋग्यजुस्सामात्मकच्छन्दोभिश्चितो ग्राम्यारण्य-पश्वोषधिभिर्हविष्मान दक्षिणाभिरायुष्मान् ।।
स चतुर्धा ज्ञेयः उपास्यश्च---स्वाध्याययज्ञः, जपयज्ञः कर्मयज्ञः, मानसश्चेति । तेषां परस्पराद् दशगुणोत्तरोवीर्येण ब्रह्मचारि-गृहस्थवनस्थ-यतीनामविशेषेण प्रत्येकशः ।। सर्व एवैते गृहस्थस्याप्रतिषिद्धाः क्रियात्मकत्वात् ॥ ना क्रियोब्राह्मणो नासंस्कारो द्विजो, नाविद्वान् विप्रो तैः हीनः श्रोत्रियः, नाश्रोत्रियस्य यज्ञः ।।
(परिभा० प्रकृ० प्र० प्र० पृ० १२१) अर्थ-यज्ञ इक्कीस प्रकार का हैऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदों के छन्दों से रचित है, प्राम्य, श्रारण्यक, पशु और औषधियों के हविष्य से किया जाने वाला, दक्षिणाओं से आयुष्मान् , इक्कीस प्रकार का यह यज्ञ मौलिक चार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org