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१०, ज्वलति कर्मा ११, अपत्य के १५, बाहु के १२, कान्तिकर्मा १८, अत्तिकर्मा १०, धननामा २८, क्रुध्यतिकर्मा १८, गतिकर्मा १२२, क्षिप्तनाम २६, संग्राम के ४६, वधकर्माणः ३३, ऐश्वर्यकर्मा ४, वहु के १२, महत् के २५, परिचरण कर्माणः १०, रूप के १६, प्रज्ञा के ११, पश्यतिकर्माणः ८, उपमार्था, मेधावी के २४, यज्ञ के १५, दानकर्माणः १०, अध्येषणा कर्माणः ४ कूप के १४, निर्णीतान्तर्हितानि ६, पुराण के ६, दिशउत्तराणि २६, अन्तिक ११, व्याप्तिकर्मा १०, वन के १८, ईश्वर के ४, ह्रस्व के ११, गृह के २२, सुख के २०, प्रशस्य १०, सत्य ६, सर्वपद समाम्नात ६, अर्चतिकर्मा ४४, स्तोतृनाम १३, ऋत्विक के ८, याञ्चाकर्मा १७, स्वपितिकर्मा २, स्तेन के १४, दूत के ५ नवनामा० ६, द्यावापृथिव्योर्नामानि २४ ।
इस प्रकार नाम चारसौ अठावन इनके अभिधेय द्रव्य चौवन हैं। धातु तीनसौ तेरह केवल पन्द्रह कर्म के अर्थ में प्रयुक्त होते थे।
निघण्टु को इस स्थिति को पढ़कर कोई भी विद्वान् यह कहने का साहस नहीं करेगा कि वेदों में केवल चारसौ अठावन नाम और तीनसौ तेरह धातु थे । और ये क्रमशः ५४ चौपन द्रव्यों को और पन्द्रह कर्मों को प्रदर्शित करते हुए वेदोक्त विविध विषयों का ज्ञान कराने में पर्याप्त होते होंगे । बस्तु-स्थिति तो यह है कि वैदिक निघण्टु अधिकांश नष्ट हो चुका था। उसका अल्पमात्र यह अंश बचा था वह यास्क को मिला और उन्होंने अपने निरुक्त के अन्त
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