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जो अब हम लोगों को अप्राप्त हैं, अवश्य रही होंगी। अतः एव यह स्पष्ट है कि सामवेद केवल ऋग्वेद में से ही संगृहीत हुआ है
और वह एक विशेष कार्य के लिये सुर ताल-बद्ध किया गया है।" __ ऊपरके उद्घ त किये ऋग्वेद तथा सामवेद के वर्णन से यह तो निश्चित हो जाता है कि ये दोनों ही संहितायें वास्तव में एक ही संग्रह के दो स्वरूप हैं, पहले में जो ऋचाये हैं वे ही ताल स्वर बद्ध करके सामवेद के रूप में व्यवस्थित की गयी हैं ।
यद्यपि इन दोनों संहिताओं में अनेक सूक्त तथा ऋचायें प्रक्षिप्त हो चुकी थीं, होती जा रही थी, फिर भी उन ऋचाओं के वास्तविक अर्थ की परम्परा प्रचलित होने से उनसे कोई अनर्थ कारक परिणाम उत्पन्न होने नहीं पाया था । प्रक्षिप्त ऋचाओं में निर्दिष्ट वनस्पतियों तथा अन्न आदि अन्य पदार्थों के नाम पशुओं के नामों तथा उनके अवयवों के नामों के सहश होने पर भी तत्कालीन निरुक्त कार उनका खरा 'अर्थ' बता देते थे । इस कारण अनुष्ठानों में किसी प्रकार की विकृति उत्पन्न नहीं हुई।
सैंकड़ों वर्षों के बाद वैदिक शब्दों का स्पष्टीकरण करने वाले निघण्टु का लोप हो गया था, इस का फल यह हुआ कि वेदों के शब्दों का अर्थ-कल्पना के बल से किया जाने लगा, इसके परिणाम स्वरूप वेदों में पर्याप्त अर्थ विकृति उत्पन्न हो गई, वनस्पति और प्राणियों के समान नामों में से कई स्थान पर प्राणियों को वनस्पति और वनस्पतियों को प्राणी मान लिया गया । परिणाम-स्वरूप उस
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