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कभी जिनका संघर्षण होता था, वे भारत के पहाड़ी लोग थे, जिनको विदेशी विद्वान् काले आदि निवासी के नाम से पुकारते हैं । वास्तव में वे दोनों ही प्रकार के मनुष्य भारतीय थे, जो पहाड़ों में रहते और कठिन परिश्रम करते थे । उनको यहां आर्य विद्वान अनार्य के नाम से पुकारते थे, बाकी काले यहां के मूल निवासी थे, और गोरे बाहर से आये हुये थे, इस कथन में में कोई प्रामाणिकता नहीं है। वेदकाल में आर्य जातियां पूर्व में अंग-मगध, (पूर्व-दक्षिण विहार ) से लेकर पश्चिम में गान्धार शिवि देशों तक फैले हुये थे। उनके प्रदेश की दक्षिण सीमा नर्मदा
और विन्ध्याचल तक पहुंचती थी । उत्तर में हिमालय की तलहटी तक । ऋग्वेद में पञ्जाब की नदियों का और अनार्यों से संघर्ष होने का विशेष वर्णन मिलता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि
आर्य पञ्जाब में ही बसते थे, किन्तु पञ्जाब प्रदेश और उसके पश्चिम प्रदेश में पहाड़ी अनार्यों का प्राबल्य था, और बार-बार आर्यों का पशुधन चुरा लेजाते थे, इतना ही नहीं परन्तु पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का जल तक दूषित करके आर्यों को तंग किया करते थे। इस कारण पञ्जाब प्रदेश के अनार्यों और वहां की नदियों की वेदों में विशेष चर्चा मिलती है । बाकी गङ्गा, सरस्वती, यमुना आदि भारत की पूर्वीय नदियों के भी नाम वेदों में अनेक स्थान पर दृष्टिगोचर होते हैं।
अनार्यों के साथ पार्यों का मध्य और पूर्व भारत में संघर्षण विशेष नहीं होता था, क्योंकि वहां की समतल भूमि अनायों के
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