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माया शल्य
_ 'तिविहे सल्ले पण्णत्ते-माया सल्ले, नियाण सल्ले, मिच्छादसण सल्ले।' शल्य तीन प्रकार का होता है-माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य।
सबसे बड़ा शल्य माया है। छिपाना मनुष्य की सहज मनोवृत्ति है। अपने असौन्दर्य को छिपाने के लिए कपड़ा पहनता है। वस्त्रों का घना आवरण शरीर के भद्देपन को ढांकता है। प्रसाधन सामग्री भी इसलिए प्रयोग में ली जाती है कि असौन्दर्य न दीखे। यदि शरीर पर चमड़ी नहीं होती तो मूलरूप सामने आ जाता। मनुष्य का कंकाल रूप देखने से भय लगता है। चमड़ी ने आवरण डाल दिया, मनुष्य समझता है, मैं सुन्दर लगता हूं। दूसरा आवरण कपड़े का है, तीसरा आवरण प्रसाधन का है। मनुष्य अपने बाह्य को सुन्दर मानता जा रहा है। चौथा आवरण मोह का है, जिससे अन्तर् सुन्दर न होते हुए भी सुन्दर मान रहा है। ऐसा छिपाव नहीं करना चाहिए, जो दूसरे को धोखे में डाल दे। माया भी व्यक्ति को धोखे में डालती है।
एक सज्जन लड़के का सम्बन्ध करने गए। लड़की के पिता ने कुर्सियां-टेबुल लगा दी। लड़की को बिठा दिया। आगन्तुकों का स्वागत किया। लड़की रूप में सुन्दरी थी, पढ़ी-लिखी भी थी। बातचीत करके सम्बन्ध पक्का हो गया। लड़की लंगड़ी है-इसका पता तब चला जब शादी हो गई थी। यह माया शल्य था। ___ माया आदमी का आन्तरिक शल्य है। व्रती इस प्रकार की माया का व्यवहार नहीं करता। हमने व्रतों को सरल समझ लिया। व्रतों से पहले उनकी भूमिका होनी चाहिए। केवल त्याग
धर्म की तीसरी कक्षा-व्रती बनना : ७६
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