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अनेकान्तवादी हैं। एक वस्तु सत् भी है, असत् भी है, नित्य भी है, अनित्य भी है। हमें सापेक्षता को समझना चाहिए। जो सापेक्षता को नहीं जानता, वह भगवान महावीर का सिद्धान्त तीन काल में भी नहीं जान सकता।
एक भी बात नय के बिना नहीं होती। निर्जरा किसकी होती है? कर्मों की। एक नय की दृष्टि से यह उत्तर सही नहीं है। गौतम ने भगवान से पूछा-निर्जरा कर्म की होती है या अकर्म की? भगवान ने उत्तर दिया-कर्म का वेदन होता है और अकर्म की निर्जरा होती है। जब कर्म उदय में आते हैं, तब वेदन होता है। फिर वे अकर्म बन जाते हैं, तब उनकी निर्जरा होती है। निश्चय नय के अनुसार अकर्म की निर्जरा होती है तथा कर्मों का वेदन होता है। स्थूल दृष्टि से यह भी ठीक है कि कर्मों की निर्जरा होती है परन्तु निश्चय की दृष्टि से अकर्म की निर्जरा होती है।
नरक में कौन उत्पन्न होता है, मनुष्य या तिर्यंच? निश्चय की दृष्टि से नैरयिक ही नरक में उत्पन्न होता है, व्यवहार की दृष्टि से मनुष्य और तिर्यंच भी नरक में उत्पन्न होते हैं। अपेक्षा-भेद से सब सत्य हो सकते हैं।
नय सात होते हैं और अपेक्षा-भेद से सात सौ बन जाते हैं। फिर अपेक्षा बढ़ाएं तो और अधिक भेद हो जाते हैं।
'जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया।'
जितने बोलने के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं। कोई भी बात नय के बिना नहीं होती। एक अक्षर के अनन्त पर्याय होते हैं। उनके अनन्त अर्थ होते हैं।
७४ धर्म के सूत्र
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