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________________ तूफान आएगा, वहीं से लंगर भी आ जाएगा।' फलित यह हुआ कि जितनी समस्या उत्पन्न होती है, उतने ही उसके समाधान होते हैं। बुद्धिहीन श्रद्धा भी खतरनाक हो जाती है। श्रद्धा ज्ञानपूर्वक होनी चाहिए। ज्ञान के अभाव में श्रद्धा हिल जाती है। ज्ञान और श्रद्धा दोनों साथ चलनी चाहिए। कोरी श्रद्धा रहने से नए प्रश्नों में उलझ जाते हैं। ऊहापोह होने लग जाता है। इनमें उनका दोष नहीं है, क्योंकि उनके पास ज्ञान नहीं है। ज्ञान की वेदी पर श्रद्धा की मूर्ति बिठाने वाले की श्रद्धा नहीं डिगती। अज्ञान के सहारे चलने वाली श्रद्धा उतार-चढ़ाव आने पर लड़खड़ा जाती है। अतिमुक्तक मुनि जब पानी में पात्री को तैराने लगे तो साधुओं ने देख लिया। वे भगवान के पास आए, बोले-'भंते! आपका शिष्य क्या कर रहा है? आपने कैसे साधु बना दिया?' भगवान ने उत्तर दिया-'निर्ग्रन्थो! आशातना मत करो। यह इसी जन्म में मोक्ष पाने वाला है।' आलोचना करने वाले मोक्ष में नहीं गए, और वे चले गए। प्रमादवश, अधृतिवश या छद्मस्थता के कारण कोई काम कर लेता है, उससे उसकी पवित्रता या अपवित्रता का निर्णय नहीं होता। उनका निर्णय उसके अंतरंग से होता है। कदाचित् के आधार पर कोई तोला या नापा नहीं जा सकता। साधुओं के लिए अतिमुक्तक की बात बड़ी हो गई, परन्तु भगवान के लिए वह बड़ी बात नहीं थी। भगवान् सब जानते थे। हमें जानने का प्रयत्न करना चाहिए। कई ज्ञानी होते हैं, पर श्रद्धावान् नहीं होते। कई श्रद्धावान् होते हैं, पर ज्ञानी नहीं होते। ज्ञान के आधार पर श्रद्धा खड़ी होनी चाहिए। ७म धर्म के सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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