________________
सम्यक्दृष्टि (४)
'विमतिः सम्मतिर्वापि, चार्वाकस्य न मृग्यते।
परलोकात्मवस्तुनि, यस्य मुह्यति शेमुषी ॥' भगवन्! मैं सबका मत जानना चाहता हूं, किन्तु चार्वाक का नहीं, जो नास्तिक है। न तो मैं उसका विरोध करना चाहता हूं और न सलाह लेना चाहता हूं। जिस व्यक्ति की परलोक, आत्मा और मोक्ष के विषय में स्पष्टता नहीं है, उसका मत लेने में कोई सार दिखाई नहीं देता। आचार्य ने अपनी आस्तिक्य-भावना स्तुति में व्यक्त की है।
सम्मति उसकी चाहिए जिसकी दृष्टि साफ हो, पारदर्शी हो। आरदर्शी सब होते हैं, लेकिन पारदर्शी सब नहीं होते। जिसकी दृष्टि पारदर्शी नहीं है, उसकी सलाह लेना आवश्यक नहीं है। हमारी दृष्टि स्पष्ट, निर्मल और पारदर्शी होनी चाहिए। स्फटिक के समान निर्मल होने से जो जैसा होता है, वह वैसा ही दिखाई देता है।
प्रश्न हो सकता है-कैसे जानें कि अमुक की दृष्टि साफ है? सम्यक्दृष्टि के तीन लक्षणों का विवेचन हो चुका है। चौथा लक्षण है-अनुकम्पा। जिसमें अनुकम्पा की दृष्टि है, समझना चाहिए कि वह सम्यक्दृष्टि है। जिसमें अनुकम्पा नहीं, उसे मिथ्यादृष्टि ६२ म धर्म के सूत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org