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________________ चाहते हैं। दूसरों के आधार पर चलने की बात समझ में नहीं आती। बच्चा मां की उंगली को पकड़कर चले तो समझ में आने जैसी बात है। पर वह यदि दस-बीस वर्ष तक उंगली पकड़कर चले तो अच्छा नहीं लगता। श्रावक भी साधु के आधार से सीखते हैं। जब सीख लिया तो उसका आचरण होना चाहिए। सारा जीवन सीखने ही सीखने में बिता देंगे तो आचरण कब करेंगे? भगवान की वाणी है-प्रत्येक व्यक्ति का पुण्य-पाप अपना-अपना होता है। जहां मनुष्य दूसरों के छिद्र देखने में समय बिता देता है, वहां स्वयं के धर्म करने की बात गौण हो जाती है। अमुक साधु क्या करता है? वह क्या लाता है, क्या खाता है? इस छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति से मनुष्य अपना खोता ही है, पाता कुछ नहीं। श्रावक को माता-पिता की उपमा दी गयी है तो सौत की भी उपमा दी है। गुरुदेव परिवर्तन करते हैं। लोग प्रश्न पूछते हैं। जिज्ञासा तक तो ठीक है, लेकिन सारा भार अपने पर क्यों ओढ़ लेते हैं, समझ में नहीं आता। एक व्यक्ति मेरे पास आया और प्रश्न पूछने लगा। मैंने उसको समझाया। वह कहने लगा-'सूत्रों की बात का मुझे क्या ज्ञान?' मैंने कहा-'या तो तुम सूत्रों का अध्ययन कर बात करो या फिर मैं कहता हूं, उस पर विश्वास करो।' सूत्रों में कई स्थान पर अपवाद बताया है। उसकी कुंजी गीतार्थ के हाथ में होती है। गीतार्थ जैसा आदेश दे, साधुओं को वैसा ही करना होता है। श्रावक का अधिकार 'पूछकर जानकारी करने तक है, लेकिन उसका भार सिर पर ढोने के ६० में धर्म के सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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