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________________ सम्यकदृष्टि (३) 'तव चेतसि वर्तेहमिति वार्त्तापि दुर्लभा । मच्चित्ते वर्तसे चेत् त्वमलमन्येन केनचित् ॥' भगवान के प्रति एक भक्त की भावना है कि मैं तुम्हारे चित्त में रहूं, यह मेरे लिए कठिन है । हो जाए तो इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य नहीं है । पर असम्भव है, क्योंकि मेरे जैसे तुम्हारे कितने ही हैं। लेकिन तुम मेरे चित्त में बने रहो । भगवान का चित्त में बने रहने का अर्थ है- भाग्य का उदय, आत्मा का उदय । जिसके मन में निरंतर भगवान की स्मृति रहे, उससे बढ़कर भाग्यशाली कौन होगा ! २४ घण्टों में कितने क्षण आत्मा की स्मृति रहती है? जो व्यक्ति परमात्मा या आत्मा की स्मृति में रहता है, वह सहज योगी, तपस्वी व आध्यात्मिक बन जाता है । सवेग का अर्थ है - भगवान के धर्म की स्मृति । मुमुक्षा का अर्थ है - मुक्त होने की इच्छा । मुमुक्षा और भगवान की स्मृति एक ही है । बन्धनों का नाम संसार है । बन्धन अपने स्वभाव से या अपने मन से बनाए हुए होते हैं। रेशम के कीड़े को कौन बांधता है? अपने आप स्वयं बंध जाता है । मकड़ी अपने जाले में स्वयं फंस जाती है। क्या आदमी अपने लिए सम्यकदृष्टि (३) ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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