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धर्म कहां रहता है, धर्म क्या है-यह हमने जाना। अब प्रश्न आता है, धर्म आवश्यक क्यों है?
हम खाते हैं, भोजन करते हैं। प्रश्न होता है-क्या भोजन करना आवश्यक है? एक ही उत्तर मिलता है-हां, आवश्यक है। रोटी खानी चाहिए और पानी पीना चाहिए-इसका उपदेश नहीं मिलता। जो जरूरी है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। रोटी और पानी शरीर की मांग है। उपवास में रात को तारे गिनने पड़ते हैं। दो, तीन, चार दिन का उपवास हो तो फिर कहना ही क्या! पानी के बिना गर्मी में प्राण निकलने लग जाते हैं। रोटी और पानी की आवश्यकता अनुभव होती है, वैसे क्या धर्म की आवश्यकता अनुभव होती है? यदि नहीं, तो लगता है धर्म आवश्यक नहीं है। धर्म यदि चार दिन न किया जाए तो उपवास की तरह तारे गिनने नहीं पड़ते। फिर धर्म आवश्यक क्यों है? खाना खाओ, कपड़े पहनो, मकान बनाओ-इसके लिए कोई उपदेश नहीं देता। रोटी खाना, कपड़े पहनना और मकान बनाना आदि स्वाभाविक मांग है। बिना किसी के कहे ये सारे काम किए जाते हैं। धर्म कृत्रिम मांग है और थोपी हुई मांग है। धर्म पंगु है, अपने आप नहीं चलता। जब धर्म की आवश्यकता महसूस नहीं होती, तब उसे क्यों करना चाहिए?
उपवास, तप, स्वाध्याय के लिए प्रेरणा देनी पड़ती है, तब लगता है धर्म शरीर की मांग तो नहीं है। तब धर्म क्यों करते हैं? क्या उपदेशक वर्ग को कहने का संस्कार हो गया और श्रावक वर्ग को सुनने का संस्कार हो गया है?
मैंने प्रश्न को उभारा है और वह इसलिए कि नया बीज
धर्म आवश्यक क्यों? : १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
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