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इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि हम छाया को मानते हैं, जो सामने दिखाई देता है उसी को मानते हैं। मूल कहां है? वह है चैतन्य। इसीलिए भौतिकता की बात सामने आती है। हमारे जीवन के सारे कार्य भौतिकता से चलते हैं, जैसे-खाना-पीना चलना-फिरना, ओढ़ना-पहनना आदि। क्या वे हमारे लिए अनुपयोगी हो सकते हैं?
आइंस्टीन ने एक बार कहा था-"हम लोग वैज्ञानिक दावे तो बहुत बड़े-बड़े करते हैं, लेकिन हमारे पास जानने के साधन इन्द्रियां और मन इतने दुर्बल हैं कि हमें अनेक बार भ्रान्ति में डाल देते हैं।" यह बिलकुल सत्य है। लोग कहते हैं आंखों देखी बात झूठी कैसे हो सकती है? लेकिन सत्य यह है कि ऐसा अनेक बार होता है। गाड़ी में बैठे हुए लोग अनुभव करते हैं कि पेड़ दौड़ रहे हैं, गाड़ी नहीं। क्या आंखें धोखा नहीं दे रही हैं? चलते समय मार्ग में हमने देखा लगभग एक मील सीधी सड़क जो कम-से-कम आठ फुट चौड़ी तो होगी ही साफ दिखाई दे रही है। लेकिन अन्त में उसका किनारा सिर्फ एक लकीर-सी दिखाई देता है। फिर हमने देखा आकाश जमीन को छूता हुआ-सा लग रहा है, लेकिन ज्यों ही हम चलते-चलते उस स्थान पर पहुंचे तो देखा उस स्थान पर नहीं, और आगे यह जमीन को छू रहा है। यह आंखों का धोखा नहीं तो क्या है? सुभाष चन्द्र बोस गुप्त वेश में लोगों की आंखों को धोखा देकर ही तो देश से भाग निकले थे। कितने उदाहरण गिनाए जाएं। आंखों से देखी व कानों से सुनी अनेक बात झूठी सिद्ध होती हैं। एक बार आचार्यश्री स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त के यहां पधारे थे। विचार प्रसंग में गुप्तजी ने एक पंक्ति कही-“एक मात्रा
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धर्म के सूत्र
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