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धर्म एक : मार्ग अनेक
'जिह्वे! प्रह्वीभव त्वं 'सुकृतिसुचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना, भूयास्तामन्यकीर्तिश्रुतिरसिकतया मेद्यकौँ सुकौँ । वीक्ष्यान्यप्रौढ़लक्ष्मी द्रुतमुपचिनुतं लोचने रोचनत्वं, संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो मुख्यमेव ॥'
उपाध्याय विनयविजयजी ने लिखा है-जीभ! तू तैयार हो जा, धार्मिक पुरुष के गुणगान करने के लिए। कान! तुम भी तैयार हो जाओ, जो गुणी लोग हैं, जिन्होंने गुणों का अर्जन किया है, उनकी स्तुति या विशेषताओं को सुनने के लिए। आंखो! तुम भी तैयार हो जाओ, दूसरों की विशेषताओं को देखने के लिए।
दूसरों के गुण देख मन में प्रसन्नता जाग जाए, इससे बढ़कर लाभ क्या है? जीभ से गुणी लोगों का वर्णन नहीं किया तो वह बेकार है, कान से दूसरों के गुणों का श्रवण नहीं किया तो वह बेकार है, दूसरे के गुणों को देख आंख जल उठी तो वह बेकार है। जीभ विशेषताओं के वर्णन में लगे, कान विशेषताओं को सुनने में लगें, आंखें विशेषताओं को देखने में लगें यह जीवन का उपयोग है। इससे उल्टा होना जीवन का दुरुपयोग है।
१४८ म
धर्म के सूत्र
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