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जो आदमी अतीत को भुला देता है, वह निर्धन हो जाता है। अतीत को भुलाना नहीं है, उपयोग करना है। परम्परा को बनाए रखना आवश्यक है, जिसकी कि आज उपयोगिता है। जिनका मूल्य बदल चुका, उनको बनाए रखना मूर्खता हो जाती है।
पर्दा रखना भी एक परम्परा है। यह अनादिकालीन नहीं है। दक्षिण भारत में यह नहीं रहा। बंगाल, बिहार में परिस्थितिवश किंचित् आया है। जहां-जहां मुसलमानों का प्रभाव रहा, वहां-वहां परदा आया है। कारणवश आया है। आज कारण मिट गया, फिर भी वह पड़ा है। विवाह में बड़े भोज करते थे। आज मूल्य बदल चुका है। भोज खाते समय लोग गाली देते हैं, पीछे भी निन्दा करते हैं फिर भी किया जाता है। अभी आसाम में एक विवाह हुआ। उसमें प्रदर्शन किया गया। परिणाम यह हुआ कि वहां दंगा हो गया। आसामी कहने लगे-ये हमें चूसते हैं और हमारे सामने ही प्रदर्शन करते हैं। रोष जाग गया।
आज मूल्य बदल जाने के बाद भी लोग परम्परा को क्यों निभा रहे हैं? आज व्यर्थ परम्परा को निभाने वाले चूड़ा दिखाने के लिए झोंपड़ी तो नहीं जला रहे हैं? उपयोगिता समझनी चाहिए। आज जिसकी उपयोगिता नहीं है, उसका मूल्य कम होगा। सर्दी में ओढ़ी जाने वाली ऊनी कम्बल गर्मी में कोई नहीं ओढ़ता, क्योंकि उन कपड़ों की उपयोगिता नहीं है। जिन परम्पराओं की उपयोगिता व आवश्यकता मिट जाए, उनका भार ढोना मूर्खता के अतिरिक्त और क्या है? हमारा विवेक होना चाहिए, जो आवश्यक हो, उसे चालू रखें, जो अनावश्यक हो, उसे त्याग दें।
हम केवल धर्म का ही नहीं, कर्तव्य का बोध भी जागृत करें। विवेक जगाएं। श्रावक कौन होता है? इसके उत्तर में हरिभद्र
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धर्म के सूत्र
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