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जोधपुर के मुसद्दी बच्छराजजी सिंघी डालगणी के पास आए और बोले- 'मुझे आप पर तरस आता है। आप लोग सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास सब सहते हैं। बिना मतलब कष्ट सहते हैं, आगे-पीछे कुछ नहीं है।' डालगणी ने उत्तर दिया-'कष्टों के लिए हम साधना नहीं करते हैं। साधना में कष्ट आए, उसे सहना हमारा धर्म है। संयम अच्छा है, वर्तमान में भी और भविष्य में भी। अगर तुम्हारा सिद्धान्त फलित हुआ तो हमने जो कष्ट सहा, वह व्यर्थ हो गया। अगर हमारा सिद्धान्त सही निकला तो तुम्हारा क्या होगा?' बच्छराजजी बोले-'इतनी मार पड़ेगी कि धरती भी नहीं झेलेगी।'
यदि परलोक नहीं है तो कष्ट सहा, वह ऐसे ही गया। यदि परलोक हो गया तो नास्तिक तो ऐसे ही मारे जाएंगे। गहराई से ऐसा चिन्तन करना भी श्रुत सामायिक है।
आप सारे काम करते हैं। चार बजे उठते हैं। आवश्यक कार्य से निवृत्त हो सामायिक करते हैं, व्याख्यान सुनते हैं, भोजन करते हैं सोते भी हैं, बातें करते हैं। ताश-चोपड़ भी खेलते हैं। समय हो तो आलोचना भी कर लेते हैं। आलोचना करना भारतीय जीवन की चर्या का मुख्य अंग बन गया है। दूसरों की बात करना निकम्मापन है। जो काम में व्यस्त रहते हैं, वे बात नहीं करते। मुम्बई में दो फ्लैटों में रहने वाले एक-दूसरे को वर्षों तक नहीं जानते। अपने से अपना काम करते हैं। बिना बात किए यहां दिन बीते तो कैसे बीते!
शाम को भोजन करते हैं, इधर-उधर घूमकर आ जाते हैं। रात को सो जाते हैं। इस दिनचर्या में तत्त्व-चर्चा के लिए स्थायी समय नहीं है। लोगों से कहा जाता है, अध्ययन कीजिए।
१३६ में धर्म के सूत्र
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