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लाएगा। भगवान महावीर ने प्रामाणिकता को स्थान देते हुए नियम बनाए । साधु गृहस्थ के घर से नख काटने के लिए कतरनी मांगकर लाता है, तो वह उससे कपड़ा नहीं काट सकता, क्योंकि उसको नख काटने के लिए कहकर लाया है। बीमारी के नाम से मांगकर लाई गई वस्तु वही खा सकता है, दूसरा नहीं । गृहस्थ कहे कि चाय ले जाओ, अमुक साधु को पिला देना । इस वचन से लाई गई चाय वही पी सकता है। वह यदि न पीए तो दूसरा उसको नहीं पी सकता । उसको परठणा (विसर्जित करना) ही पड़ता है । ऐसे अनेक नियम हैं जो प्रामाणिकता के आधार पर हैं ।
प्रामाणिकता के बिना विश्वास नहीं बढ़ता। हम लोग बृहकल्प का स्वाध्याय कर रहे थे। उसमें एक कथा आई - एक व्यक्ति शिकार खेलने गया, उसके साथ एक शिकारी कुत्ता था । शिकारी ने छि छि किया और वह कुत्ता दौड़ा, मृग को मार डाला। दूसरी बार शिकारी ने छि छि किया कुत्ता फिर दौड़ा पर कोई शिकार नहीं मिला, निराश होकर कुत्ता वापस आ गया। तीसरी बार भी शिकारी ने परीक्षा के लिए छि छि किया । कुत्ता दौड़ा पर कोई नहीं मिला। चौथी बार छि छि किया तो कुत्ता नहीं दौड़ा, उसके मन में सन्देह हो गया, विश्वास मिट गया। जहां धोखा मिलता है वहां प्रामाणिकता नहीं रहती । धोखा खाने वाला एक-दो बार ही खाता है, फिर वह नहीं खाता। आज हर क्षेत्र में अप्रामाणिकता स्थापित हो रही है । सूत्रकृतांग में भगवान महावीर ने कहा है- 'मा अप्पेण पहा बहु' - थोड़े के लिए ज्यादा को मत गंवाओ।
दो प्रकार की नीति होती है- अल्पकालीन और दीर्घकालीन ।
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प्रामाणिकता का मूल्य १२३
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