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कई दिनों तक मिट्टी में अंकित रहते हैं। हमारे विचारों के चिह्न शोधन से साफ हो जाते हैं, शोधन न होने से गहरे जम जाते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि संस्कार जाग जाते हैं और मनुष्य उनके अधीन हो जाता है। तब आश्चर्य होता है। अमुक ने बुरा काम कैसे कर लिया? बुरे भी कभी-कभी अच्छे काम कर डालते हैं।
धर्म करने का, ध्यान करने का या प्रायश्चित्त करने का प्रयोजन है-संस्कारों के बन्धनों को ढीला करना। संस्कारों की गठरी को लादे फिरना दुःख है। इनको तोड़ना सुख है। आदमी जितना आदतों से परतंत्र है उतना ही दुःख है। वह जितना बाध्यता से मुक्त होता है उतना ही सुख है। जहां संस्कारों के पराधीन होते हैं वहां चाहे-अनचाहे दुःख की सृष्टि हो जाती है।
सुख क्या है? (२) म ११५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
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