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सुख क्या है? (१)
'बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात्, त्वं शंकरोसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर! शिवमार्गविधेर्विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोसि ॥' गुरुदेव मानतुंग ने भगवान ऋषभ की स्तुति में कहा-भगवन्! आप बुद्ध हैं, शंकर हैं, विधाता हैं, पुरुषोत्तम हैं। ऋषभ बुद्ध, शंकर, विधाता और पुरुषोत्तम कैसे हो सकते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य ने कहा-आप बोधिमय हैं, इसलिए बुद्ध हैं। सुख करने वाले हैं, इसलिए शंकर हैं। मुक्ति-विधान के कर्ता हैं, इसलिए विधाता हैं। आप पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, इसलिए पुरुषोत्तम हैं।
मनुष्य की समूची प्रवृत्तियों के पीछे दो मुख्य प्रेरणाएं होती हैं-दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति। जिसमें दुःख-मुक्ति की आकांक्षा नहीं है, वह कोई प्रवृत्ति क्यों करेगा? जिसमें सुखी बनने की भावना नहीं है, वह कोई प्रवृत्ति क्यों करेगा?
संस्कृत कवि ने लिखा है-'सर्वारम्भाः तण्डुलप्रस्थमूलाः'-हमारे सारे प्रयत्न सेर भर चावल के लिए हैं। लेखक दक्षिण या पूर्व दिशा का था, इसलिए चावल लिखा है। यदि वह उत्तर भारत
संस्कारों का परिवर्तन , १०५
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