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की भावना एक-दूसरे को सुनाई। फिर कहा-बरसा न बरसे तो आंवे की कमाई का आधा हिस्सा इसे दे देना। वर्षा हुई तो खेती का आधा हिस्सा तुम इसे दे देना। दोनों के हितों का सामंजस्य करा दिया। आज विरोधीहितों का सामंजस्य करने वाला पिता कहां है!
धार्मिक के लिए यह आवश्यक है कि वह परमार्थ के पथ पर चले। जो परम अर्थ को समझ लेता है, वह स्वार्थी नहीं हो सकता। कुछ परमार्थ का प्रश्न आने पर कहते हैं, हम दूसरों के विषय में क्यों सोचें? दूसरों के लिए व्यर्थ में कर्म क्यों बांधे? मानो वीतरागी बन जाते हैं। जब वे दुकान में बैठते हैं, तब नहीं सोचते कर्म बांधे? उस समय कहते हैं, यह गृहस्थ का खाता है। ऐसा न करें तो काम कैसे चले?
बहिन-बेटी की रकम हड़पने में संकोच नहीं। यह मन की विडम्बना है या वैराग्य? वैराग्य हो तो रूपचन्दजी सेठिया की तरह सोचेगा। वे स्वयं कम द्रव्य खाते थे, पर कोई पाहुना घर पर आ जाता तो उसकी चिन्ता स्वयं करते। किसी ने उनसे पूछा-आप अपने लिए इतना संयम करते हैं, फिर दूसरों के लिए इतनी चेष्टा क्यों करते हैं? वे कहते-संयम मेरे मन में है या इनके? ये अतिथि हैं, इन पर अपना संयम क्यों थोपूं? होता उल्टा है। अपने लिए सब खुलावट रखते हैं और संयम दूसरों पर थोपते हैं। स्वार्थ को बड़ा स्थान मिल गया। जिसमें स्वार्थ की भावना प्रबल होती है, उसमें धर्म की भावना विकसित नहीं होती।
समाजशास्त्रियों ने मानदंड बताया कि अपने लिए करने
संस्कारों का परिवर्तन में १०३
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