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________________ कोई पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर नहीं, अनुभव और प्रयोगसिद्ध बात है। हमने अपने और हजारों-हजारों व्यक्तियों पर परीक्षण किया है और देखा है कि किस प्रकार व्यक्ति संतुलित और सामान्य बन जाता है। आज धर्मगुरु की अपेक्षा शिक्षक पर ज्यादा जिम्मेदारी है। क्योंकि विद्यार्थी शिक्षक के नजदीक ज्यादा है। सारा दायित्व शिक्षा पर है। यदि शिक्षा के द्वारा यह भावात्मक विकास नहीं हो सकता तो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र का क्या होगा, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। जीवन विज्ञान के क्षेत्र में यह परिकल्पना है कि योग समवाय के द्वारा ऐसा कुछ किया जाए। शिक्षा संस्थाएं तो बहुत लम्बा समय लेती हैं। हम जिस प्रयोग की बात कर रहे हैं, वह मात्र तीस-चालीस मिनट का है। एक प्रयोग कराया जाए पांच दिन और एक दिन केवल सैद्धान्तिक बात बतलाई जाए। एक वर्ष बाद इसका सर्वेक्षण किया जाए तो निश्चय ही इसके परिणाम चौंकाने वाले होंगे। अवचेतन मन की सुप्त शक्तियों को जागृत किया जा सकता है। हिन्दुस्तान के आदमी में काफी दक्षता है। उसकी शक्ति, सामर्थ्य और कुशलता का लोहा सारी दुनिया मानती है। किन्तु यहां का आदमी बहुत चरित्रवान् होता है, यह धारणा अभी नहीं बन पाई है। हम अपने जीवन को बदलें, केवल सैद्धान्तिक तौर पर नहीं, प्रायोगिक तौर पर। धर्म जीवन को परिवर्तित करने की कला सिखाता है। परिवर्तन के अनेक घटक तत्त्व हैं। उनके सशक्त तत्त्व है-ध्यान। ध्यान धर्म से भिन्न नहीं है। ध्यान कहो या धर्म कहो, कोई अन्तर नहीं पड़ता। धर्म केवल चिन्तन नहीं, क्रिया है। ध्यान भी केवल चिन्तन ६४ म धर्म के सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003116
Book TitleDharma ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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