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८४ / भगवान् महावीर
- किसी भी प्राणी का वध अपनी आत्मा का ही वध है। किसी भी प्राणी की दया अपनी आत्मा की ही दया है। इसलिए हिंसा का विष और कंटक के समान परिहार करना चाहिए ।
१६. लाभोत्ति न मज्जेज्जा । अलाभोत्ति ण सोयए ।।
( आ. २/४/११४, ११५ ) - लाभ होने पर गर्व मत करो । लाभ न होने पर शोक मत करो । १७. जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य ।
तस्स समाइअं होइ, इइ केवलि भासियं । । (अनु. ७०८, गा. २ ) - जो त्रस और स्थावर - सब जीवों के प्रति सम होता है, उसी के सामायिक (समता की साधना ) होती है । यह केवली ने कहा है । १८. सामाइय माहु तस्स जं,
जो अप्पाण भए ण दंसए । ।
देखता ।
(सू. १/२/२/१७) - समत्व की अनुभूति वही कर सकता है, जो कहीं भी भय नहीं
सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केणवि । आसाए वोसरित्ताणं, समाहिं पडिवज्जए ।। (मूला. २ / ४२ )
- समस्त प्राणियों के प्रति मेरे मन में समत्व का भाव है, किसी के प्रति वैर भाव नहीं है। आशा का परित्याग कर मैं समाधि - समत्व को ग्रहण
करता हूं ।
१९.
रायबंधं पदोस च हरिसं दीणभावय । उस्सुगत्तं भयं सोगं, रदिमरदिं च वोसरे । । (मूला. २ / ४४ ) - समत्व की साधना के लिए मैं राग, द्वेष, प्रसन्नता, दीनता, उत्सुकता, भय, शोक, विषाद, आनन्द का परित्याग करता हूं ।
२०.
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