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८२/भगवान् महावीर
५. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्तिं पभावेज्ज, तं गाणं जिणसासणे।।
(मूला ५/७१) --जिससे राग का विनयन होता है, जिससे श्रेय की ओर गति होती है, जिससे मैत्री-भाव बढ़ता है, जैन शासन में उसे ही ज्ञान कहा है।
६. जं अन्नाणी कम्म, खवेदि भवसयसहस्स कोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ अंतोमुहुत्तेण ।।
(भ. आ. ११०) -अज्ञानी मनुष्य जन्म की प्रलम्ब श्रृंखला में जिन कर्म-संस्कारों को क्षीण करता है, उन्हें ज्ञानी और ध्यानी मनुष्य एक मुहूर्त मात्र में क्षीण कर डालता है।
७. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ।।
(उ. १४/२४) -जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करने वाली रात्रियां निष्फल चली जाती हैं। ८. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ।।
(उ. १४/२५) -जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती। धर्म करने वाले की रात्रियां सफल होती हैं।
९. वदणियमाणि धरंता, सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विदंति ।।
(समयसार १५३) -जो परमार्थ शून्य हैं वे व्रतों और नियमों को धारण करते हुए तथा शील और तप का आचरण करते हुए भी निर्वाण को प्राप्त नहीं होते। १०. एगो में सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा में बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।
(नियमसार ९९)
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