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वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में जैन धर्म का योगदान/७५
भगवान् महावीर ने ईश्वर को अस्वीकार नहीं किया, पर इसे अस्वीकार किया कि वह मनुष्य के भाग्य का नियंता है। भगवान् ने कहा-'मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का नियंता है। दूसरा कोई भी उसके भाग्य का नियंता नहीं है। कर्म भी उसके भाग्य का नियंता नहीं है। वह मनुष्य द्वारा कृत है। कृत का परिणाम भुगतने के लिए वह बाध्य है, पर इतना बाध्य नहीं कि उसमें कोई परिवर्तन न कर सके। जिसका स्वतंत्र अस्तित्व होता है, उसका कर्तृत्व भी स्वतंत्र होता है। उसका उपादान अपने आप में होता है। दूसरे-दूसरे तत्त्व उसे प्रभावित कर सकते हैं, पर उस (कर्तृत्व-शक्ति) को निर्वीर्य नहीं कर सकते।'
मनुष्य के कर्तृत्व को प्रभावित करने वाले अनेक तत्त्व हैं, जैसे-काल, स्वभाव, नियति (जागतिक नियम) और कर्म । इनमें कर्म अधिक प्रभावी और निकट समबन्धी है। वह मनुष्य के अपने ही पुरुषार्थ से कृत होता है। पुण्य-कर्म के विपाक से मनुष्य को सुख मिलता है और पाप-कर्म के विपाक से उसे दु:ख मिलता है। अपने किए हुए कर्म का फल उसे अवश्य भुगतना होता है, इस जन्म में या किसी भी जन्म में। उसे भुगते बिना उससे छुटकारा नहीं होता।
भगवान् महावीर ने कर्म की शक्ति को स्वीकार किया, पर उसे सर्वोच्च शक्ति के रूप में मान्यता नहीं दी। यदि वे कर्म को सर्वोच्च शक्ति के स्थान पर प्रतिष्ठित करते तो ईश्वरीय सत्ता के अस्वीकार सिद्धांत अर्थहीन हो जाता। वह केवल स्थानांतरण मात्र होता, ईश्वर के स्थान पर कर्म प्रतिष्ठित हो जाता, तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं आता। आत्मा पर कोई नियंता होता, भले फिर वह ईश्वर हो या कर्म । भगवान् ने सर्वोच्च शक्ति को एक सीमित अर्थ में स्वीकृति दी। पुरुषार्थ और धर्म की सापेक्ष-शक्ति
कर्म मनुष्य के इच्छा-स्वातंत्र्य को सीमित करता है और मनुष्य का पुरुषार्थ कर्म की शक्ति को सीमित करता है इसलिए पुरुषार्थ और कर्म की सापेक्ष व्याख्या की जा सकती है। पुरुषार्थ कर्म का जनक है और कर्म पुरुषार्थ का जन्य है। यदि कर्म की शक्ति असीम हो तो पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाता है। फिर पुराना कर्म उदय में आता है। उसके उदय से प्रभावित होकर मनुष्य नया कर्म करता है। फिर उदय और फिर बंध। इस चक्र में मनुष्य
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