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वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में जैन धर्म का योगदान/७३
चेतनात्मक है। जीव और अजीव दोनों का अस्तित्व स्वतन्त्र है। जीव अजीव से उत्पन्न नहीं है और अजीव जीव से उत्पन्न नहीं है। जीव अनन्त हैं। प्रत्येक जीव दूसरे जीव से स्वतन्त्र है। अजीव के पांच प्रकार हैं
१. धर्मास्तिकाय-गति का निमित्त। २. अधर्मास्तिकाय-स्थिति का निमित्त। ३. आकाशास्तिकाय-आधारभूत तत्त्व। ४. काल-परिवर्तन का हेतु।
५. पुद्गल-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवान् तत्त्व । आश्रव और बन्ध
गौतम ने एक बार भगवान् से पूछा-'भंते ! जीव और अजीव में कोई परस्पर सम्बन्ध है?' भगवान् ने कहा- कोई भी तत्त्व सर्वथा सदृश नहीं होता और कोई भी तत्त्व सर्वथा विसदृश नहीं होता। जीव और अजीव में भी अनेक धर्मों का साम्य है, इसलिए जीव और अजीव परस्पर संपर्क स्थापित किए हुए हैं। जीव अजीव (पुद्गल) का भोग कर रहा है, अजीव जीव का भोग्य बना हुआ है। इस संपर्क का माध्यम जीव का अपना प्रयत्न है। वह अपने प्रत्यन से पुद्गलों को आकर्षित कर अपने साथ जोड़ता है। यह पुद्गलों को आकर्षित करने का प्रयत्न आश्रव और आकर्षित पुद्गलों का जीव के साथ एकीभाव बंध कहलाता है।' दु:ख-चक्र
बंध पुण्य या पाप के रूप में अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है। शुभ प्रवृत्ति से बंधे हुए पुद्गलों की प्रतिक्रिया पुण्य के रूप में और अशुभ प्रवृत्ति से बंधे हुए पुद्गलों की प्रतिक्रिया पाप के रूप में प्रकट होती है। मनुष्य पुण्योदय के प्रति राग और पापोदय के प्रति द्वेष कर फिर आश्रव करता है। इस प्रकार आश्रव से बंध, बंध से फिर आश्रव, आश्रव से फिर बंध और फिर आश्रव-यह चक्र चलता ही रहता है। इस चक्र का नाम संसार है। इस चक्र में फंसा हुआ जीव जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि शारीरिक और मानसिक दु:खों का वेदन करता है। दु:ख-चक्र से मुक्ति का उपाय
शरीर, इंद्रिय विषयों का ग्रहण-यह जीव का स्वाभाविक क्रम है।
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