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मूल्य-परिवर्तन/५९
भी नौकर। किन्तु समता के शासन में दीक्षित होने के बाद न कोई राजा है और न कोई नौकर। इसलिए सब परस्पर समता का व्यवहार करो।
भगवान् की इस समता-वाणी ने साधु-संघ को समत्व की धारा में प्रवाहित कर दिया।
विभिन्न देशों में जन्मे हुए, विभिन्न आहारों से पले-पुसे मनुष्य समता के शासन में दीक्षित होकर परस्पर भाई बन गए। भगवान् ने उस विषमता के युग में समता की ऐसी लौ प्रज्वलित की जिसकी ज्योति आज के सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा है।
भगवान् महावीर ने सत्य का साक्षात्कार किया। उन्होंने प्रजा-हित के लिए कुछ सत्यों का प्रतिपादन किया। उनकी वाणी को उस युग की जनता ने अपनाया। किन्तु कोई भी नया विचार एक साथ समाज-मान्य नहीं होता। वह अनेक भूमिकाओं से संक्रान्त होकर लम्बे समय के बाद व्यापक मान्यता प्राप्त करता है। स्वतन्त्रता, सापेक्षता, सहअस्तित्व, सामुदायिकता, सेवा, शस्त्र-वर्जन, युद्ध-वर्जन, प्रामाणिकता, ज्ञान और आचार का समन्वय, अहिंसा, असंग्रह, ब्रह्मचर्य, निरामिष भोजन-ये उनकी दर्शन ज्योति के कुछ विशिष्ट स्फुलिंग हैं।
भगवान् ने अध्यात्म की भूमिका पर कहा था-'मैं संयम और तप के द्वारा अपने आप पर शासन करूं, यह मेरे लिए अच्छा है, कोई दूसरा डंडे के द्वारा मुझ पर शासन करे, यह मेरे लिए अच्छा नहीं है।'
स्वतन्त्रता का विचार व्यवहार की भूमिका पर विकसित हुआ। उपनिवेशवाद के विरुद्ध क्रांति हुई। प्रत्येक देश स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलित हो उठा। वर्तमान विश्व का बड़ा भाग आज स्वतंत्र है। आज का अधिनायकवाद भी प्रजातन्त्र का मुखौटा पहने बिना नहीं चल सकता। आज विषमता भी समता के आचरण में ही पल सकती है। सहअस्तित्व, मानवीय एकता, शस्त्र-वर्जन तथा युद्ध-वर्जन के प्रति आज जितना प्रबल जनमत है उतना शायद अतीत में नहीं था। वर्तमान में इन विचारों के साथ किसी का
१. सूत्रकृतांग १/२/२/३
जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया। जे लोणपयं उवविये, नो लज्जे सयं समाचरे।।
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