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कैवल्य और धर्मोपदेश/४७
प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर ही आत्मा का अस्तित्व बतला रहा हूं।'
'भंते! मैं तर्कशास्त्र का अध्येता हूं। क्या आप तर्क के आधार पर आत्मा का अस्तित्व का प्रतिपादन नहीं करते?'
गौतम! आत्मा अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय गम्य नहीं है। तर्क द्वारा इन्द्रियगम्य विषयों को ही सिद्ध किया जा सकता है।'
तर्क प्रत्यक्ष के सामने नत हो गया। इन्द्रभूति अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान् की शरण में आ गए।
अग्निभूति ने इन्द्रभुति की दीक्षा का संवाद सुना। वे आश्चर्य चकित रह गए। उनके मन में कुतूहल पैदा हुआ। वे अपने शिष्य-परिवार के साथ भगवान् के पास आए। 'अग्निभूति! तुम्हें कर्म के विषय में संदेह है?' यह कहकर भगवान् ने उन्हें चिन्तन की गहराई में उतार दिया। मेरे सर्वथा अज्ञात प्रश्न को इन्होंने कैसे जान लिया? क्या ये प्रत्यक्षज्ञानी हैं? ये प्रश्न उनके मन में उभरे। लोह चुंबक जैसे लोहे को खींचता है वैसे ही भगवान् ने इन्द्रभूति को अपनी ओर खींच लिया। उस समय भगवान् ने कर्म की व्याख्या की। जीव अपने पुरुषार्थ से सूक्ष्म परमाणुओं को खींचता है। वे परमाणु क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में जीव के साथ रह जाते हैं। इस प्रकार वर्तमान का पुरुषार्थ और अतीत का पुरुषार्थ कर्म बन जाता है। भगवान् की प्रत्यक्षानुभूति में अग्निभूति का मन एकरस हो गया। वे अपने परिवार के साथ भगवान् के शिष्य बन गए। इस प्रकार वायुभूति आदि विद्वान् एक-एक कर आते गए और अपने-अपने शिष्य-परिवार के साथ भगवान् के शिष्य बनते गए।
वायुभूति के आने पर भगवान् ने जीव और शरीर की भिन्नता का प्रतिपादन किया।
भगवान् ने कहा-'स्थूल दृष्टि से सूक्ष्म का निर्णय नहीं किया जा सकता। शरीर स्थूल है, मूर्त है। जीवन सूक्ष्म है, अमूर्त है। यदि दोनों एक हों तो इन्हें दो मानने का कोई प्रयोजन नहीं रहता। इन्द्रियों की सहायता के बिना मैं देख रहा हूं कि जीव शरीर से भिन्न है। यदि जीव शरीर से भिन्न नहीं होता तो इन्द्रियों की सहायता लिए बिना मैं ज्ञान नहीं कर पाता।'
व्यक्त के आगमन पर भगवान् ने पांच भूतों के अस्तित्व का
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