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कैवल्य और धर्मोपदेश/४५
६. आत्मोपासना। ७. उपवासपूर्वक आत्मोपासना।
मिथ्यात्व, आसक्ति और भोग के अंधकार से प्रताड़ित मनुष्य ने भगवान् की वाणी में सम्यक्त्व, अनासक्ति और संयम का प्रकाश देखा। हजारों-हजारों व्यक्ति भगवान् की वाणी को शिरोधार्य करने के लिए उद्यत हो गए। अन्तर्मुखी दृष्टिकोण
क्रियाकाण्ड की प्रधानता के कारण मूल्यांकन का दृष्टिकोण बहिर्मुखी हो रहा था। भगवान् ने उसे बदलने के लिए अंतर्मुखी दृष्टिकोण दिया। जनमानस में यह मूल्य स्थापित हो चुका था कि सिर मुंडा लेने वाला श्रमण, ओंकार जपने वाला ब्राह्मण, अरण्यवास करने वाला मुनि और कुशचीवर धारण करने वाला तपस्वी होता है। भगवान् ने श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तपस्वियों के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया। किन्तु उनके मानदण्ड को स्वीकार किया। भगवान् ने कहा-'सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता। ओंकार का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता। अरण्यवास करने मात्र से कोई मुनि नहीं होता। कुशचीवर धारण करने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता। इनके मानदण्ड हैं-समता, ब्रह्मचर्य, ज्ञान और तप । समता की साधना करने वाला श्रमण, बह्मचर्य की साधना करने वाला ब्राह्मण, ज्ञान की आराधना करने वाला मुनि और तप की आराधना करने वाला तपस्वी होता है।' मानवीय एकता
भगवान् ने जातिवाद को तात्त्विक नहीं माना। उन्होंने कहा-'मनुष्य कर्म(आचार-व्यवहार) से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। वर्ण-व्यवस्था मनुष्य द्वारा कृत है। यह ईश्वरीय व्यवस्था नहीं है। आत्मा ही परमात्मा
मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। सुख-दु:ख का कर्ता वह स्वयं ही है। वह ईश्वरीय सत्ता से संचालित नहीं है। आत्मा ही परमात्मा है। उससे भिन्न कोई ईश्वर नहीं है। वह साधना के द्वारा कर्म-मुक्त होकर ईश्वर बन जाता है। भगवान् ने अपनी अनुभव-वाणी द्वारा व्यक्ति-व्यक्ति में
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