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गृहवास के तीस वर्ष / २७ विछिन्न हो गया । वे इतने बड़े परिवार में विलीन हो गए जहां 'स्व' और 'पर' की रेखा नहीं है। श्रमण वर्द्धमान के चरण क्षत्रियकुंडपुर की सीमा से आगे बढ़े। हजारों-हजारों लोगों की आंखों में आंसुओं की धारा बह चली । लोग पीछे-पीछे चलने लगे । 'कुमार अब हमारे नहीं रहे । अब ये हमें छोड़कर जा रहे हैं। न जाने फिर कब आयेंगे?' इस प्रकार की असंख्य आवाजें वातावरण में गूंज उठीं। लोग-विह्वल से हो गए। यह दुनिया का बहुत बड़ा आश्चर्य है कि व्यक्ति एक सीमा में रहता है तब उस सीमा के लोग उसे अपना मानते हैं। जब वह छोटी सीमा को छोड़ व्यापक बनता है तब सीमा में रहने वाले उसे पराया अनुभव करने लग जाते हैं। श्रमण वर्द्धमान क्षत्रियकुंडपुर के नागरिकों को अब पराए-से लगने लगे । अपनत्व का सूत्र टूटता-सा नजर आया। श्रमण वर्द्धमान कुछ रुके। उन्होंने कहा- मैं अब श्रमण हूं-राज्य और राष्ट्र की सीमा से मुक्त। आप लोग सीमा में रहने वाले हैं। आप मेरे साथ कब तक चलेंगे?' युवा श्रमण की वाणी सुनते ही जनता के आगे बढ़ते चरण वहीं रुक गये । वह प्रतिमा - सी निश्चल होकर खड़ी रह गई, श्रमण वर्द्धमान ने उनसे विदा ली। वे अकेले चल पड़े। व्यक्ति की अन्तिम निष्पत्ति अकेलापन ही है, यह सत्य जैसे मूर्त हो रहा था। देश और काल ने श्रमण वर्द्धमान और जनता के बीच में व्यवधान डाल दिया । दूरी ने उन्हें आंखों से ओझल कर दिया। आंखों ने जब उन्हें देखने में असमर्थता प्रकट की तब जनता अपने-अपने घर को लौट गई। राजकुमार वर्द्धमान की कहानी सम्पन्न हो गई । इधर नन्दिवर्द्धन क्षत्रियकुंडपुर का शासन - सूत्र चला रहे हैं, उधर श्रमण वर्द्धमान आत्मजगत् के शासन - सूत्र का संचालन कर रहे हैं । नन्दिवर्द्धन का काम स्थूल और सरल है । श्रमण वर्द्धमान का काम सूक्ष्म और जटिल । पर उनका उल्लास जटिल को सरल बनाने की दिशा में गतिशील हो रहा था
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