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२४/भगवान् महावीर
रेखा पर पहुंच गए और एक दिन इस लोक से प्रयाण कर गए। उनकी मृत्यु से सारा परिवार शोकाकुल हो गया। कुमार वर्द्धमान को माता-पिता से अत्यधिक प्रेम था। पर उनका मन शोकातुर नहीं हुआ। वे चेतना के जिस स्तर पर जी रहे थे, उसमें शोक जैसा कुछ बचा ही नहीं था। वे कोरे तत्त्ववेत्ता नहीं थे। वे तत्त्वदर्शी थे। वे जीवन और मृत्यु को एक साथ देख रहे थे। नश्वरता के सिद्धांत से उनका गाढ़ा परिचय हो चुका था। नश्वर जीवन का समाप्त होना उनके लिए कोई अद्भुत नहीं था। जो बहुत स्वाभाविक है उनके लिए तत्त्वदर्शी शोक कैसे करेगा?
कुमार माता-पिता के स्नेह बन्धन से मुक्त हो गए। माता-पिता की उपस्थिति में उनके पास रहने का संकल्प भी पूरा हो गया। उनकी श्रमण होने की भावना जागृत हुई । उन्होंने अपने अपने बड़े भाई नन्दिवर्द्धन के पास हृदय की भावना को प्रकट किया। नन्दिवर्द्धन उसे सुन चौंक उठे। उनका हृदय कांप उठा, आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। वे सिसकते स्वर में बोले-'कुमार ! माता-पिता के वियोग की व्यथा से हम मुक्त नहीं हुए हैं और तुम फिर हमें व्यथित करना चाहते हो! क्या यह दीक्षा का उपयुक्त समय है? मैं मानता हूं कि माता-पिता की मृत्यु से तुम्हारे मन को चोट लगी है, तुम्हारा अनासक्त मन अब इस जागतिक वातावरण से दूर होना चाहता है। मृत्यु ऐसी ही घटना है। वह आसक्त लोगों के मन में भी अनासक्ति का बीज बो देती है। जो पहले से ही अनासक्त हो उसकी अनासक्ति के बीज को अंकुरित कर देती है। मुझे लगता है तुम्हारा अनासक्त-बीज अंकुरित हो गया है। पर तुम सोचो, अभी मैं तुम्हें गृहत्याग की अनुमति कैसे दे सकता हूं? मैं दोहरी व्यथा का भार ढोने में समर्थ नहीं हूं।'
कुमार वर्द्धमान का हृदय प्रेम से लबालब भरा था। उनकी करुणा अनन्त थी। किसी को कष्ट देना उनके लिए संभव नहीं था। इस प्रकृति ने उनके चरणों को घर की सीमा से बाहर नहीं जाने दिया। वे दो वर्ष और घर में रहे। किन्तु यह स्थिति गृहवासी और गृहत्यागी दोनों से भिन्न थी। कुमार ने इन दो वर्षों में आत्मा का प्रवर सान्निध्य पा लिया। वे निरंतर कायविसर्जन की स्थिति में रहने लगे। समत्व की धारणा अत्यन्त स्पष्ट हो गई। उन्होंने सजीव जल में जीवों का स्पन्दन देखा और उसका उपयोग बन्द
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