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गृहवास के तीस वर्ष/२१
कर सकता। दोनों की सार्थकता दोनों के समन्वय में है। वर्द्धमान पराक्रमी और ज्ञानी दोनों थे। परिवार वाले उनके पराक्रम से परिचित हो गए। उनके ज्ञान से पूरे परिचित नहीं हुए । एक परम्परा के अनुसार वर्द्धमान पढ़ने के लिए विद्यालय नहीं गए। दूसरी परम्परा के अनुसार वर्द्धमान आठ वर्ष के हुए तब माता-पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए विद्यालय भेजा। विद्यालय में वर्द्धमान
वर्द्धमान बहत विनम्र थे। वे मात-पिता की आज्ञा को बड़ी तत्परता से शिरोधार्य करते थे। उनका अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित था। विद्यालय में जो पढ़ाया जाता, वह उन्हें ज्ञात था। फिर भी आदेश-पालन की दृष्टि से वे विद्यालय में गए। उपाध्याय ने राजकुमार का स्वागत किया। छात्र पढ़ रहे थे। वर्द्धमान उनके साथ बैठ गए। कहा जाता है कि ब्राह्मण के वेश में इन्द्र आया। उसने वर्द्धमान के पास अक्षर और उनके पर्याय के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। कुमार ने उनका उत्तर दिया। उत्तर इतना विशद था कि उससे व्याकरण के गंभीर रहस्य उद्घाटित हो गए। ब्राह्मण ने उपाध्याय से कहा-जो स्वयं स्निग्ध है उसे स्निग्ध करना आवश्यक नहीं होता। कुमार स्वयं प्रबुद्ध हैं। प्रबुद्ध को बोध देना क्या आवश्यक है?
उपाध्याय कुमार की प्रतिभा से हतप्रभ हो गया। उसने कुमार के पास जाकर अपने मन के संदेह रखे। कुमार ने उसका समाधान किया। उपाध्याय ने कुमार को सादर विदा किया और महाराज सिद्धार्थ के पास संदेश भेजा-'कुमार विद्या के पारगामी हैं, उन्हें पढ़ने के लिए आप विद्यालय न भेजें।' कुमार की शिक्षा सम्पन्न हो गई। अब परिवार के लोग उनकी ज्ञान-राशि से भी कुछ-कुछ परिचित होने लगे। अन्तर जगत् की पहचान सचमुच कठिन होती है। विरक्ति और विवाह
समय की सुई निरन्तर घूमती रहती है। वह कभी नहीं रुकती। महावीर ने जन्म लिया। किशोर हुए। तरुण बने । अब वे यौवन की दहलीज पर पहुंच गए। उनका शरीर पूर्ण विकसित हो गया। स्वास्थ्य, सौन्दर्य और शक्ति–तीनों में कोई कम या अधिक नहीं लग रहा था।
एक दिन महाराज सिद्धार्थ त्रिशला से बातचीत कर रहे थे उस
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