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४/भगवान् महावीर
प्रज्वलित कर लेते और ऊपर से सूर्य का आतप सहते थे। कुछ तपस्वी लोहे की नुकीली शूलों की शैय्या बनाकर उस पर लेटे रहते थे।
धर्म की प्रधानता का युग था। राजा और प्रजा-सब धर्म में विश्वास करते थे। धर्म की सत्ता राज्य की सत्ता से ऊपर थी। धर्म को अस्वीकार करने वाले व्यक्ति भी थे, पर उनकी संख्या बहुत कम थी। समाज में उन्हें प्रतिष्ठा नहीं मिलती थी। इस परिप्रेक्ष्य में धर्म और धार्मिक को बहुत मूल्य. दिया जाता था। सभी परम्पराओं में साधुओं की बहुलता थी। सैकड़ों-हजारों साधुओं के समूह एक गांव को दूसरे गांव में परिव्रजन करते थे। विभिन्न सम्प्रदायों के साधु परस्पर मिलते थे, तत्त्वचर्चा और एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करते थे।
शक्ति के उपासक वीतरागता को अनिवार्य नहीं मानते थे। आध्यात्मिक धारा में वीतराग होना अनिवार्य समझा जाता था। ‘राग-द्वेष को क्षीण किए बिना कोई व्यक्ति मुक्ति नहीं पा सकता'-यह उनका दर्शन था।
भौतिकता और इन्द्रिय-परकता-ये मानव-समाज की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। वे मनुष्य को संघर्ष की ओर ले जाती हैं। संघर्ष का बिन्दु प्रखर होता है, तब अध्यात्म और परमार्थ की सहज मांग उपस्थित होती है। वह सूचना है किसी महान् आध्यात्मिक नेतृत्व के उदय की। वह सूचना है किसी पुरुषार्थ के प्रस्फुटन की। पृष्ठभूमि तैयार होती है, तब ऊंचाई अपने आप आती है। कारण-सामग्री पूर्ण होती है, तब कार्य अपने आप बनता है। वज्जी गणतन्त्र
पचीस सौ वर्ष पहले का बृहत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था। उस समय यह देश आज से अधिक विशाल था, पर सबको एक सूत्र में बांधने वाला कोई विशाल व्यक्तित्व नहीं था। पुरानी भाषा में कोई चक्रवर्ती और आज की भाषा में कोई केन्द्रीय नेतृत्व नहीं था।
पूर्वी देशों में दो शासन-पद्धतियां चल रही थीं। अंग, मगध, वत्स आदि देश राजतन्त्र द्वारा शासित थे। काशी, कौशल, विदेह आदि देशों में गणतन्त्र की स्थापना हो चुकी थी। उस समय दो प्रसिद्ध गणतन्त्र थे-एक लिच्छवियों का, दूसरा मल्लों का। गणतन्त्र राजतन्त्र का उत्तर चरण और जनतन्त्र की पूर्व-पीठिका है। लिच्छवियों ने राज-शक्ति को संगठित करने
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