________________
२५ : धार्मिक शिक्षा का महत्त्व
आज का युग शिक्षण-प्रशिक्षण का युग है। उसकी उपयोगिता प्रमाणित और स्थापित हो चुकी है। जीवन का हर महत्त्वपूर्ण पक्ष शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ जोड़ा जा रहा है। हंसना, खेलना, खाना आदि विभिन्न क्रियाओं की वैज्ञानिक पद्धति खोजने का प्रयत्न हो रहा है, उसके शिक्षण-प्रशिक्षण की अपेक्षित व्यवस्था के संदर्भ में चिंतन किया जा रहा है। पर कैसी बात है कि धार्मिक शिक्षण, जो कि जीवन का मूल है, आज उपेक्षित है। इसी का यह दुष्परिणाम है कि जनजीवन अनेक तरह की बुराइयों से ग्रस्त होता जा रहा है। यदि इस स्थिति से उबरना है तो जन-जीवन में धर्म के मौलिक सिद्धांतों का व्यापक प्रसार करना होगा, पर इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं। धार्मिक शिक्षा से मेरा आशय किसी संप्रदायविशेष की शिक्षा से नहीं है। मेरा आशय सत्य, अहिंसा, सदाचार, संयम-जैसे तत्त्वों के शिक्षण से है। ये ऐसे तत्त्व हैं, जिन्हें सभी लोग समान रूप से स्वीकार करते हैं। मैं मानता हूं, धार्मिक शिक्षा के रूप में इन तत्त्वों का जितना अधिक फैलाव होगा, समाज और राष्ट्र का उतना ही हित
होगा।
संयम का मूल्य
मैं देख रहा हं, आज विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता एवं उच्छंखलता की वृत्ति व्यापक रूप में पनप रही है। यह धार्मिक शिक्षण के अभाव की ही एक दुष्परिणति है। शिक्षा में संयम का मूल्य स्थापित नहीं हो पाया है। संयम के अभाव में इस तरह की और भी अनेक विकृतियां पैदा होती हैं। यदि हमें समाज को स्वस्थ बनाना है तो शिक्षा में संयम का मूल्य स्थापित करना ही होगा। संयम ही वह तत्त्व है, जो वृत्तियां सुसंस्कृत बनाने में सक्षम है। अपेक्षा है, शिक्षा-क्षेत्र के नीतिनिर्धारक लोग इस बिंदु पर अपना ध्यान केंद्रित करें। मैंने ऐसा सुना है
.
६
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org