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संयमशील और चरित्रवान नागरिक होते हैं। राष्ट्र के नागरिकों का सच्चरित्र और नीति-निष्ठा उसकी सबसे बड़ी शक्ति होती है। विद्या का लक्ष्य
प्रश्न किया जा सकता है कि नागरिकों में सच्चरित्र और नीतिनिष्ठा कैसे पनपे, चरित्रवान और नीतिनिष्ठ नागरिकों का निर्माण कैसे हो। यह काम शिक्षा-केंद्रों का है। यदि वे अपने उद्देश्यों के अनुरूप सही काम करें तो इस दृष्टि से वे उर्वर भूमि प्रमाणित हो सकते हैं तथा राष्ट्र को एक बहुत बड़ी निधि दे सकते हैं, परंतु यह बहत स्पष्ट है कि आज वे अपने उद्देश्यों के अनुरूप काम नहीं कर पा रहे हैं, अन्यथा कोई कारण नहीं कि राष्ट्र में नैतिकता के दुर्भिक्ष-जैसी दुःखद और विकट स्थिति पैदा होती। अपने उद्देश्यों के अनुरूप कार्य न कर सकने का कारण भी अस्पष्ट नहीं है। शिक्षा का मूलभूत लक्ष्य भुला-सा दिया गया है। शिक्षा का मुख्य काम आत्म-विकास के माध्यम से सर्वांगीण व्यक्तित्व के निर्माण का है, पर आज वह आजीविका का साधन बन गई है। विद्यार्थी इसलिए विद्याभ्यास करता है कि उसे ऊंची डिग्री उपलब्ध हो जाएगी और उसके माध्यम से उसे अच्छी नौकरी मिल जाएगी। विद्या से आत्म-विकास होता है और वह जीवन के सर्वतोमुखी विकास का आधार है यह बात उसके चिंतन में नहीं आती, बल्कि कहना चाहिए कि यह लक्ष्य उसके दृष्टि-पथ से ओझल-सा हो गया है। मैं नही समझता, जब विद्यार्थियों के समक्ष विद्याभ्यास के लक्ष्य की ही स्पष्टता नहीं है, तब उनका लक्ष्य तक पहुंचना कैसे संभव हो सकता है। मैं शिक्षा क्षेत्र से जुड़े सभी लोगों से कहना चाहूंगा कि वे सा विद्या या विमुक्तये-यह लक्ष्य या उद्देश्य सामने रखकर कार्य करें, ताकि सन्नागरिकों के निर्माण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य वे सफलतापूर्वक संपादित कर सकें। संयम और सदाचार को सर्वोच्च प्रतिष्ठा मिले
___ मुझे ऐसा लगता है न केवल शिक्षा के क्षेत्र में, अपितु समाज के लगभग सभी क्षेत्रों में अर्थ को अतिरिक्त प्रतिष्ठा मिल रही है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वह प्रतिष्ठा के सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन है, जीवन का सर्वोच्च मापदंड और मूल्य बन गया है। अर्थ की इस अतिरिक्त प्रतिष्ठा ने संयम और सदाचार का अवमूल्यन किया है।
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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