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________________ की रक्षा कैसे कर सकता है? आप जनता की सुरक्षा का महान दायित्व सफलतापूर्वक तभी निभा पाएंगे, जब आप अपने-आपमें सुरक्षित बनें। आप कहेंगे कि हम तो अपने-आपमें सुरक्षित ही हैं। नहीं, मैं जिस सुरक्षा की बात कह रहा हूं, उस दृष्टि से संभवतः आपने ध्यान नहीं दिया है। मैं सुरक्षा चाहता हूं - बुराइयों से, दुष्प्रवृत्तियों से, दुराचार से । जो स्वयं दुराचार में डूबा है, दुष्प्रवृत्त है, पतित है, वह दूसरों की रक्षा कैसे कर सकेगा ? आज की स्थिति कैसी है, यह बात आपसे छिपी नहीं है। लोग कहते हैं कि जब रक्षक ही भक्षक बन रहे हैं, तब त्राण की आशा कहां से करें। कहते हैं, रामराज्य में गुड़ ने रामचंद्रजी से शिकायत के स्वर में कहा - 'प्रभो ! आपके राज्य में सभी सुखी हैं, किंतु मैं कैसा अभागा हूं कि दुखी हूं।' रामचंद्रजी ने पूछा- 'क्या दुःख है ?' गुड़ बोला- 'दुःख यही कि मुझे सभी खाते हैं। मनुष्यों और पशुओं की तो खैर बात ही क्या, जरा-जरा-सी मक्खियां और चींटियां भी मुझे नहीं छोड़तीं ।' रामचंद्रजी ने पूछा-'ऐसा कौन - सा गुण है तुममें ?' गुड़ बोला- 'प्रभो ! मैं मीठा हूं।' मुस्कराते हुए-से रामचंद्रजी बोले - ' भाई ! तब तो मेरा मन भी खाने को चलता है।' गुड़ ने सोचा- बस, हो गया न्याय! अब किससे पुकार करूं ! रक्षक ही जब भक्षण को ललचाते हैं, तब दूसरा तो कोई रक्षा कर ही कैसे सकता है ! जरूरी है आत्म-निरीक्षण यह बात कितनी यथार्थपरक है, इस चर्चा में आप न जाएं, पर इसमें जो मर्म छिपा है, उसे अवश्य पहचानें। रक्षक ही जब भक्षक बनने लगें, तब जनता पर क्या गुजरती है, इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। लोग आपको रक्षक समझकर आपके पास आते हैं, पर उनके साथ कैसा व्यवहार होता है, यह अस्पष्ट नहीं है। रिश्वत का ऐसा चक्र चलता है कि कुछ कहने की बात नहीं। उनका छोटा-से-छोटा काम भी इसके बिना होना कठिन हो जाता है। लोग कहते हैं कि भगवान घटघटव्यापी हैं, पर वर्तमान में सरकारी कर्मचारियों की स्थिति देखकर तो ऐसा लगता है कि आज रिश्वत घट-घटव्यापी है। आप कहेंगे कि जब सरकार से मिलनेवाले वेतन से काम नहीं चलता, तब क्या करें। हम भी तो बाल-बच्चेदार हैं। मैं समझता हूं कि इस तर्क का कोई अर्थ नहीं रक्षक स्वयं सुरक्षित बनें Jain Education International For Private & Personal Use Only १७० www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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