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११८ : भारतीय संस्कृति का स्वरूप
भारतीय संस्कृति अध्यात्म और संयम की संस्कृति है। यहां की अंतश्चेतना वैभव तथा संपदा की पर्वतमालाओं के आगे नहीं झुकी। वह झुकी संयम के आगे, त्याग के आगे, तपस्या के आगे। उसे हिंसा नहीं झुका सकी। अहिंसा के सामने उसने स्वयं आत्मसमर्पण किया। भारतीय संस्कृति त्रिवेणी है। वैदिक, जैन और बौद्ध-इन तीनों धाराओं से वह निष्पन्न होती है, जिसमें कि भौतिकवाद के प्रति स्वाभाविक पराङ्मुखता है, पर उसी संस्कृति में पले लोगों का जीवन आज जरा परखें तो सही। आप पाएंगे कि भौतिकवाद के प्रति उनकी कितनी आसक्ति है। यह भारतीयता का अक्षम्य हास है। भारतीय यदि आज भी अपने को विनाश से बचाना चाहते हैं, तो चेते। आज संसार में एक ओर विध्वंस अपनी विषैली जिह्वा बाहर निकाले संसार को डस लेने के लिए तत्पर है, अणुबम, उद्जनबम उसी की तो पूर्व सूचना है तो दूसरी ओर निर्माण उससे जूझना चाहता है। इस ध्वंस और निर्माण की टक्कर में भारतीय किस ओर जाएं, यह उन्हें सोचना है। हिंसा, हत्या, क्रूरता-ये विध्वंस के साधन हैं। क्या भारतीय मानस में इनके लिए स्थान होगा? मैं सोचता हूं, बहुत-कुछ खो चुकने पर भी इतने नीचे स्तर तक भारतीय चेतना नहीं पहुंची है। उसका रहा-सहा सत्त्व भी उसे ऐसा करने से उबारेगा, क्योंकि भारतीयता की रग-रग में यह नाद रमा है कि वैर से वैर बढ़ता है, हिंसा हिंसा को बढ़ाती है। फिर इनके माध्यम से शांति पाने का यत्न किया जाए, क्या यह विवेक का दिवालियापन नहीं है ? भारत निर्माण की ओर आगे बढ़ेगा, जीवन-निर्माण की ओर।
मैंने सोचा-जीवन-निर्माण का सुगम मार्ग लोगों को मिले। लोगों का जीवन कैसा है, इस पर मैंने बारीकी से ध्यान दिया। वह बुराइयों और दुर्व्यसनों से जर्जर दीखा। उनके प्रतिकार के लिए भारतीय संस्कृति और दर्शन के मूल बीज-अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि के आधार पर
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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