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८८ : तेजोलेश्या के लक्षण
प्राणी की भावधारा को लेश्या कहा जाता है। लेश्या शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती है। तेजः, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं हैं। उनके प्रभाव से प्राणी की भावधारा शुभ / प्रशस्त बनती है। इसके ठीक विपरीत कृष्ण, नील और कापोत- इन तीन अशुभ लेश्याओं के प्रभाव से भावधारा अशुभ / अप्रशस्त होती है।
तीन शुभ लेश्याओं में पहली लेश्या है- तेजः । इस लेश्यावाले प्राणी का पहला लक्षण है कि उसकी वृत्ति नीची होती है, पर नीची वृत्ति का तात्पर्य जघन्य वृत्ति नहीं है। यहां इसका आशय नम्रता से है। यानी तेजोलेश्यावाला व्यक्ति अभिमानी नहीं होगा, विनम्र होगा। चलते समय अपनी दृष्टि नीची रखेगा। अभिमान का यहां प्रासंगिक अर्थ गर्व है, आत्माभिमान नहीं । आत्माभिमान तो अच्छा तत्त्व है। वह तो हर व्यक्ति में होना ही चाहिए। जिसमें यह आत्माभिमान नहीं, वह कैसा मानव ! आत्माभिमान के अभाव में व्यक्ति हीनता की ग्रंथि से ग्रथित हो जाता है । परिणामतः वह अपने आपको हीन दीन- क्षीण समझने लगता है। मेरी दृष्टि में स्वयं को महान या अतिरिक्त मानना जितना बुरा है, उससे भी ज्यादा बुरा है, स्वयं को हीन दीन-क्षीण मानना । दुराचारी द्वारा स्वयं को सदाचारी बताया जाना जितना अनुचित है, उससे ज्यादा अनुचित है सदाचारी होते हुए भी अपने-आपको दुराचारी मानना और बताना । निष्कर्ष की भाषा में अपनी संपन्नता का आत्माभिमान बुरा नहीं, बल्कि अच्छा ही है। यह आत्माभिमान व्यक्ति के लिए इस बात का द्योतक है कि वह इतने गुणों का अधिकारी है।
तेजोलेश्यावाले व्यक्ति का दूसरा लक्षण है कि वह अचल और स्थिर विवेकवाला होगा। यह एक प्रकट सचाई है कि चंचलता और अस्थिरता दोनों विकास या उत्थान में प्रमुख बाधक तत्त्व हैं। वही व्यक्ति विकास कर पाता है, जो अचपल हो, यानी जिसका मन, वचन और
तेजोलेश्या के लक्षण
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