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७२ : श्रद्धा, ज्ञान और सदाचार का समवाय ही
मोक्ष-पथ है
भगवान पार्श्वनाथ और महावीर जैन-परंपरा के महान प्रभावी तीर्थंकर हुए हैं। जो उन्हें तीर्थंकर नहीं मानते, वे भी उनका ऐतिहासिक अस्तित्व /महत्त्व स्वीकार करते हैं। वे दोनों महापुरुष हमारे आराध्य और सर्वस्व हैं। उनसे बढ़कर हमारे पास दूसरी कोई पूंजी या संपन्नता नहीं है। उनके द्वारा बताए गए पथ पर चलना ही हमारा अभिप्रेत है। भगवान पार्श्वनाथ ने जहां चातुर्याम धर्म का प्रचार किया, वहीं भगवान महावीर ने अणगार धर्म और अगार धर्म के रूप विभाजित कर धर्म को व्याख्यायित किया। वैसे दोनों के द्वारा प्ररूपित धर्म में मौलिक कोई भेद नहीं है। वह एक ही है। उनके उस धर्म को रेखांकित करते हुए आगमों में कहा गया है___इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलं पडिपुण्णं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। एत्थं ठिया जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। इसका अर्थ है-यही निर्णंथ-प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, एक है, प्रतिपूर्ण है, न्याययुक्त है, शुद्ध है, शल्य को काटनेवाला है, सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति का मार्ग है, निर्याण और निर्वाण का मार्ग है, यथार्थ है, अविच्छिन्न है, सब दु:खों का नाश करनेवाला है।
मैं समझता हूं, स्वीकृत पथ के प्रति घनीभूत श्रद्धा का यह एक निदर्शन है। इस पथ के प्रति हमारी ऐसी ही घनीभूत श्रद्धा होनी चाहिए, क्योंकि संशयशील व्यक्ति लक्ष्य तक पहुंचने में कभी सफल नहीं हो सकता। पर श्रद्धा ज्ञानयुक्त होनी चाहिए। सम्यक ज्ञान के साथ ही वह वास्तव में अपना प्रभाव दिखाती है।
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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